Wednesday 31 May 2017

'सागर की गहराई' कविता

*सागर ने जाकर अंत में अपने

एक क्षितिज बनाया

जहाँ पर उसने रोज़ की भाँति

धरती,आकाश  मिलाया

*तेज लहरों से उसने अपनी
बालू का ज़र्रा बनाया
फिर उसने उस बालू के जर्रे को
तट तक पहुँचाया

*हुआ हर पत्थर ज़र्रा-ज़र्रा
लहरों से टकराकर
मिल गया फिर वह तट की
उस दरदरी रेत में जाकर

*सागर ने अपनी गहराई में
कितने ही राज छुपाए 
सीप के हर मोती ने
कई राज़ हमें बतलाए 

*छुपा खजाना इसके अंदर
कोई जो भेद ना पाया
इसकी गहराई के तल को
कोई भी समझ ना पाया ||

No comments:

Post a Comment