Saturday 13 June 2020

कोरोना काल में सांस्कृतिक बदलाव

विषय
भारतीय भाषा साहित्य एवं संस्कृति का वर्तमान वैश्विक परिदृश्य 
उपविषय
कोरोना काल में सांस्कृतिक बदलाव

वर्तमान में संपूर्ण विश्व कोरोना महामारी से ग्रसित है । विश्व का कोई भी देश इससे अछूता नहीं है । इसे तीसरे विश्व युद्ध की संज्ञा दी जा रही है । जिसमें परमाणु शक्ति का नहीं विषाणु शक्ति का प्रयोग किया गया है । चीन से सुलगी इस आग ने आज पूरे विश्व को अपनी चपेट में लेकर एक अग्नि कुंड में डाल दिया है । जिसमें जलकर कई महाशक्तियां तो अपना वर्चस्व खोती दिखाई दे रही हैं  वहीं भारत एक विश्वशक्ति के रूप में उभरकर सामने आया है । इस विषाणु त्रासदी ने जहां एक ओर विश्व के विकसित देशों को धूल चटा दी है वहीं दूसरी ओर इसका आक्रामक रूप भारत में अब देखने में आ रहा है । भारत के पास इस महामारी से निपटने के लिए बहुत - सी चुनौतियां हैं और उनसे निपटने के लिए भेदभाव मिटाकर एकजुट होने की आवश्यकता है ।

भारत की संस्कृति की बात कहें तो यह अत्यंत प्राचीन और सम्पन्न है । विश्व की  विभिन्न सभ्यताओं में प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति को बहुत सम्मान प्राप्त है । मानव सस्कृती का संबंध रचना, ज्ञान और कर्म से है । इसका संवर्धन निरंतर बना रहे इसलिए किसी भी संस्कृति का संस्कार संपन्न होना अती आवश्यक है । संस्कृति संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए होती है और भारत की संस्कृति की यही विशेषता आज उसे सर्वश्रेष्ठ बनाती है । जहां एक ओर अन्य समकालीन संस्कृतियां काल के गर्त में समा गई हैं वहीं भरथे संस्कृति आज भी विश्व के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत कर संपूर्ण भारतीय जनमानस को गौरवान्वित कर रही है । भारतीय संस्कृति की जड़े इतनी मजबूत हैं कि आज भी वसुधैव कुटुंबकम्  जैसे तत्व भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट विशेषता को परिलक्षित करते हैं ।

भारतीय संस्कृति की रीढ़ है उसकी सांस्कृतिक विरासत । एकता, अखंडता, अतुल्यता यही भारतीय संस्कृति की पहचान और गौरव है । भारतीय संस्कृति में निहित प्राचीनता, निरंतरता, धार्मिक सहिष्णुता, सार्वभौमिकता और समन्वयता जैसे अनेक तत्व प्राचीन काल से ही आज तक जुड़े हुए हैं । हमारी भारतीय संस्कृति की जड़े इतनी मजबूत हैं कि दो सौ वर्ष के अंग्रेज़ी शासन के बाद भी आज तक उसे कोई हिला नहीं सका और वर्तमान परिवेश में ब्रिटेन और अमेरिका जैसी महाशक्तियां भारत का लोहा मानती हैं । यह भारतीय संस्कृति के संस्कार ही हैं जो भारत के ऊपर राज करने वाली विश्व की महाशक्ति भारत के आगे सिर झुकाए खड़ी हैं । 

वर्तमान में संपूर्ण विश्व कोराेना महामारी से ग्रसित है । विश्व का प्रत्येक देश, क्षेत्र, गांव, जिला सभी इसकी चपेट में हैं । भारत भी इससे अछूता नहीं है ।इस आपदा से उत्पन्न संकट ने सभी को अपनी चपेट में ले रखा है । एक छोटा - सा विषाणु पूरे विश्व के लिए काल बन गया है । भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह समय बहुत चुनौतीपूर्ण है हलांकि विश्व के कई प्रमुख देशों ने इस महामारी से उबरने के लिए भारत द्वारा उठाए गए कदमों की सराहना की है वहीं अनेक महाशक्तियां भारत से सहयोग की भी कामना रख रही हैं । यह भारत की प्राचीन संस्कृति से उपजे संस्कार ही हैं कि इस महामारी काल में भारत अन्य देशों अमेरिका, श्रीलंका इत्यादि देशों की सहायता कर रहा है । भारत सायोग के रूप में इन देशों को दवाइयां और अन्य सहयोगी वस्तुएं उपलब्ध करवा रहा है । भारत के द्वारा उठाए गए इन सहयोगी क़दमों की सराहना भी की जा रही है । इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ने इस चुनौतीपूर्ण समय को एक अवसर के रूप में लिया है जहां न केवल एक ओर इस महामारी को समाप्त करने के लिए पूरे भारत वर्ष दृढ़ संकल्पित है वहीं दूसरी ओर पूरे जन मानस को एकजुट करने, एकात्मकता को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है । भारत का हर जन इस महामारी पर विजय पाने हेतु प्रयासरत है । यहां मैं यही कहूंगी कि जब मातृभूमि के प्रत्येक निवासी का मनोबल दृढ़ हो तो किसी भी युद्ध को जीता जा सकता है और ये समय पूरे विश्व के लिए किसी युद्ध से कम नहीं है । 

कोरोना काल में भारतीय संस्कृति में आए बदलावों की बात करें तो प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा तालाबंदी ( लाकडाउन ) 0.1 से 0.4 तक जितने भी कदम उठाए गए वह सराहनीय हैं जिसमें संपूर्ण भारत वर्ष के हर जन ने सरकार का साथ दिया है । कहते भी हैं कि कार्य सिद्धी हेतु हाथ की एक उंगली की नहीं अपितु सभी उंगलियों की आवश्यकता होती है । एक उंगली में वो शक्ति नहीं जो मुठ्ठी में होती है अर्थात एकजुट होकर ही किसी समस्या का समाधान आसानी से मिल सकता है । प्रधानमंत्री जी की एक अपील चाहे जनता कर्फ़्यू के समय देश के कर्मवीर योद्धाओं का थाली बजाकर आभार व्यक्त करना हो या फिर 5 अप्रैल को रात के समय दिये जलाकर भारत की एकजुटता दर्शाने की बात हो दोनों समय पूरा राष्ट्र एकजुट होकर उनके रास्ते पर चल निकला… यही दर्शाता है कि भारत की संस्कृति में अभी भी संस्कार जीवित हैं । दीए के प्रकाश से नई उम्मीद की नई किरण का विस्तार हो और देश में एकता और भाईचारे का यह दीप सदैव जलता रहे जिससे कोरोना पर विजय प्राप्त करने वाले योद्धाओं को सकारात्मक  ऊर्जा और शक्ति मिलती रहे । प्रधानमंत्री मोदी जी के द्वारा आभार व्यक्त करने की इस अपील का देश के हर नागरिक ने बिना किसी भेदभाव के पालन किया ।

लोगों के इस जज़्बे ने एकता भाईचारे की एक नई मिसाल पैदा की । संकट के समय में सभी की इस संकल्प शक्ति ने एक नई सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न किया । आज लोगों के सामान्य नज़रिए में भी व्यापक परिवर्तन दृष्टिमत है । देश के नागरिक बिना भेदभाव के न केवल एक दूसरे की मदद कर रहे हैं बल्कि सच्ची सेवा में भी लगे हैं । सार्वभौमिकता पर बल देते हुए भारत अपनी उन्नति के साथ - साथ  संपूर्ण विश्व के कल्याण की भी कामना करता है ।

Thursday 4 June 2020

वर्तमान परिवेश में कबीर पंथ अति प्रासंगिक

वर्तमान परिवेश में कबीर पंथ अति प्रासंगिक

यह तो घर प्रेम का, खाला का घर नाही ।
सिर उतारे भूंई धरे , तब पैठे घर माही ।।
कबीर जी के समाज पशुओं का झुंड नहीं है उसके दो तत्व हैं रागात्मकता और सहचेतना अर्थात मानव समाज में रागात्मक रूप से एक अतः संबंध होना चाहिए और जीवन की स्वस्थ व्यवस्था के लिए एक अभिज्ञान भी इसलिए कबीर ने वैष्णव मन पर बल दिया है। वैष्णव मन अर्थात् ऐसा मन जो दरियादिल है, जो दूसरों के बारे में सोचता है , जिसका संबंध लोकहित से होता है , को दूसरों के दुख - सुख का अनुभव कर सकता है; इसलिए कबीर के जीवन दर्शन का एक ही केंद्र है - " प्रेम "  यह वह प्रेम है जो अपने लिए नहीं है दूसरों के लिए है । यह वह प्रेम है जिससे ईश्वर को पाया जा सकता है । यह वह प्रेम है जो स्वार्थरहित है ।
भक्तिकालीन निर्गुण संत परंपरा के आधार स्तंभ संत कबीर के जन्म और मृत्यु से संबंधित अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं । ये गृहस्थ संत थे तथा राम और रहीम की एकता में विश्वास रखते थे । कहा जाता है कि सन् 1348 में काशी में उनका जन्म हुआ और सन् 1518 के आस - पास मगहर में देहांत हुआ । कबीर ने विधिवत् शिक्षा नहीं पाई थी उनका ज्ञान अनुभव पर आधारित था जो पर्यटन और सत्संगों से प्राप्त हुआ । वे हिंदी साहित्य के भक्ति - कालीन युग में ज्ञानाश्रयी - निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे ।

 वर्तमान परिवेश की बात कही जाए तो आज प्रेम की भावना लुप्त हो गई है । आज भी कबीर के समय जैसा जाति, धर्म इत्यादि का भेदभाव देखने को मिलता है । अनेक संप्रदायों के मन और विचार भी समान नहीं होते । कहीं भी धर्म के आधार पर, मंदिर - मस्ज़िद के नाम पर हिंसा भड़क ही जाती है । ऐसी स्थिति से निपटने के लिए आज कबीर पंथ की आवश्यकता है जो इन सभी के दिलों से दूरियों को मिटा सके । कबीर पंथ लोकहितकारी पंथ है उनकी शिक्षाएं भेदभाव से परे सहिष्णुता और प्रेम का संदेश देती हैं । 

कबीर के समय हिन्दू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था । कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गई । उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि आम आदमी तक उनकी अमृत वाणी पहुंच सके । इससे दोनों समुदायों के परस्पर मिलन में सुविधा होगी । कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे आहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे । कबीर राम, रहीम और काशी, काबा में कोई भेद नहीं मानते थे । उनके अनुसार दोनों  स्थान ईश्वर के पवित्र स्थल हैं और ईश्वर की उपासना के लिए प्रयोग होते हैं । उनके अनुसार ईश्वर एक है और दोनों ही रूपों में हम ईश्वर को याद करते हैं ।

कबीर का दृष्टकोण सुधारवादी ही रहा है । कबीर अपने नीति परक, मंगलकारी सुझावों के द्वारा जनता को आगाह करते रहे और चेतावनी देते रहे कि जनकल्याण हेतु उनकी बातों को ध्यान से सुनें और अमल में लाएं । आधुनिक संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है । आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है जो कबीर काल में थी । सामाजिक आडंबर, भेदभाव, ऊंच - नीच की भावना , धार्मिक भेदभाव आज भी समाज में व्याप्त हैं । भ्रष्टाचार चहुं ओर व्याप्त है । समाज के प्रत्येक स्तर पर नैतिक मूल्यों का विघटन देखा जा सकता है । देश में सत्ता पक्ष से लेकर जनता तक किसी के भी विचार एक - दूसरे से मेल नहीं खाते । सभी अपनी - अपनी डफली
 और अपना - अपना राग अलाप रहे हैं और देश को दरिद्रता की ओर ले जा रहे हैं जहां अंधकार के अलावा कुछ नहीं है । इसी अंधकार से बचने के लिए आज आवश्यकता उन्हीं मूल सिद्धान्तों, विचारों और शिक्षा की है जिससे उजियारे को प्राप्त किया का सके । 
वैष्णव संत आचार्य रामानंद के शिष्य कबीर जिनकी शिक्षा और विचार आज वर्तमान परिवेश में अति प्रासंगिक हैं जिनको अपनाकर अपनत्व, भाईचारे की भावना को प्राप्त किया का सकता है । कबीर जी की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है, स्थान विशेष के कारण नहीं । 

डॉ नीरू मोहन ' वागीश्वरी '