Sunday 31 December 2017

नव वर्ष की बधाई

झूम उठा है अंबर आज
नव प्रभात नव कोपल के साथ
पुराने संजोकर नए सपनों में आज
आगे बढ़े हम सभी साथ-साथ

मिटाकर वैर-वैमस्य को
जगाएँ प्रीत, प्रेम व्यवहार यहाँ
सफल हो ख़्वाब पुराने नए सभी
नव वर्ष की उजली भोर के साथ

मुबारक हो नया दिन सबको
नव प्रभात की नव उष्मा के साथ !!




हाइकु भाग -3

स्वस्थ बनाए
संतुलित भोजन
सौंदर्य बढ़ाए

साँझ ढली है
नई आशाएँ लिए
आए प्रभात

खुशियाँ बाँटों
आनंदित हो मन
है नव वर्ष

धरा का जल
वाष्पित क्रिया संग
मेघ सृजन

शीत की भोर
हर्षित वन्य जीव
उषा सिम्त

रेत लेखनी
किसी काम न आए
बहती जाए

द्वारे पे खड़ी
है विदाई की डोली
अश्रु की झड़ी

साँझ सवेरे
सद्भाव है फैलाए
अंबर तल

उर का मल
हिय में मत पालो
सदा निकालो

टूटते रिश्ते
कौन अब सँवारे
बिखरे जाते

त्यागो तनाव
बनाओ मैत्री भाव
फैले सद्भाव

घर का भूला
घर वापिस आए
मंजिल न पाए

माता-पिता है
बागवान हमारे
पूजनीय है

आगंतुक हैं
ईश्वरीय स्वरूप
सत्कार पाएँ

रूप की रोए
नसीब वाली खाए
मौज मनाए

उम्र ढले ही
पालक बोझ बने
अंजाने सब

स्वयं भूखे
संतान की ख़ातिर
न सोचें कल

करो सम्मान
मात-पिता सर्वस्व
मिलेगा फल

कृष संघर्ष
दिलाता उसे सिर्फ
मौत का दर्श

रवि आतप
कनक रश्मि संग
मिटे कंपन

कटु वचन
जलप्लावन संग
रिश्ते दफन

मेघ करे हैं
बे-मौसम बारिश
कृषक त्रस्त

हिम का वेग
मन निकली आह
सैलाब लाए

शीत नीहार
मानुष है बेकार
होए न काज

तन दामिनी
जलधर कुलिश
पीर बढ़ाए

कर्दम पुष्प
पंकज कहलाते
पूजे हैं जाते

पंख पखेरू
उड़ जाते हैं प्राण
बन तू तरु

मील प्रस्तर
है दिशा निर्देशक
हो अग्रसर

मेरा जीवन
शबनम का कतरा
संग सुमन

दुष्ट जो नर
मिलता न साहिल
भटके दर

विभावरी-सी
होती दुख की छाया
प्रभात संग

ज्योत्स्ना फैलाता
रजनीश गगन में
तिमिर संग

निदाध आती
बिलकुल न भाती
प्यास बढ़ाती

सद्भाव बने
मत्सर न पनपे
है नव वर्ष

मौसम सभी
कृकलास कहाए
बदले जाए

रक्तलोचन हैं
सबसे अच्छे प्राणी
संदेशा लाएँ

मन को भाती
कुहूरव की वाणी
काक न बन   

श्रम तू कर
पिपीलिकी की भांति
सफल बन

गमनागमन
भीड़ में बुरा हाल
सड़क जाम

समाप्त तम
स्वर्णिम है आदित्य
सुप्रभातम !

जीवन बहे
मोम पिघले जैसे
जलता रहे

नई सुबह
नई उम्मीद बाँधे
उमंग बहे

नव प्रभात
पक्षी पंख पसारे
उन्मुक्त नभ

है उलझन
खामोश हुआ मन
तड़प बड़े

नि:शब्द हम
मनमुटाव खत्म
मनाओ जश्न

नवीन वर्ष
नव काव्य सृजन
प्रकृति संग

नया बरस
नव वृक्ष रोपण
मिले  सुफल

नव प्रभात
खत्म हो अत्याचार
बढ़े सद्भाव

नव विचार
प्राकृतिक दोहन
समाप्त अब

नव चेतना
उर में उदगार
शांति सद्भाव     

माघ की ठंड
नए साल का जश्न
मनाएँ सब

चुप रहती
नारकीय जीवन
नारी सहती      

चिंगारी जैसे
सुलगती औरत
रहती शांत     

सीमा से बंधी
जैसे होती है नदी
नारी की छवि  

नारी है घन
झरती बरसती
सदैव प्यासी    

घर न दर
सदैव है बेघर
नारी है खग  

बुलंद स्वर
पर रहती मौन
शब्दों की भांति  

नारी है शक्ति
नहीं ये कमज़ोर
जीव को पाले    

नारी का मन
ममता का भंडार
मिलेगा ज्ञान     

नव आशाएँ
नवनिर्मित सोच
मंज़िल पाएँ

नई रश्मियाँ
है मिलेगा सुपथ
धैर्य तू रख

नया है जोश
नई सब की सोच
नवनिर्माण

नए है स्वप्न
नई डगर संग
सफल बन

सशक्त नारी
नवसृजन मूल
संपन्न धरा    

बढ़ेगा मान
नारी देश की शान
करो सम्मान      

उन्मुक्त नभ
पंख फैलाएँ पंछी
टूटे बंधन       

घर की शान
फले फूले संसार
बेटी है मान    

नारी उत्थान
नई सोच के साथ
देश विकास   

कुंठित सोच
त्यागो सब मानुष
करो उत्थान

भ्रष्टाचार को
करो समाप्त अब
जागो इंसान

पुस्तक मेला
विचारों का अर्णव
साहित्य रेला

मदिरा पान
करे जब इंसान
बने हैवान

सुरा सेवन
नष्ट गृह संसार
भ्रष्टाचरण

मदिरालय
भ्रष्ट राह दिखाएँ
नष्ट आलय

मदिरा पान
बिगड़ती संतान
बच इंसान

बुढ़ापा आता
औलाद को न भाता
ख़्वाब जलाता

बूढ़ा दरख्त
ठूँठ न कहलाता
पाले जगत

श्रेष्ठ संतान
बुढ़ापा खुशहाल
प्राण संपन्न 

बसंत आता
पतझड़ के बाद
फूल खिलाता

धरा प्रसन्न
सुगंधित मलय
मन मगन

पीत श्रृंगार
आंचल सतरंगी
छाई बहार

स्वराष्ट्रहित
सभी की एक सोच
वही भारत

भारत देश
हमारा स्वाभिमान
त्याग विदेश

सीमा पे अरि
सुरक्षित है राष्ट्र
करो सम्मान

है समर्पण
मेरा यह विद्रोह
नहीँ कुचक्र

धन है नष्ट
मद्यपान सेवन
तन भी नष्ट

सोचो समझो
जो बोओगे…काटोगे
कर्म सुधारो

सर्द बयार
कंबल न अंबर
दीन लाचार

कैसी ये शिक्षा
बोझ तले पिसता
मासूम बच्चा

कंधो पर बोझा
नित्य ढोता बस्ते का
रोता… सहता

खेल से छूटा
किताबों में रहता
कीड़े की भाँति

टूटी है लाठी
बुढ़ापे में बेहाल
बूढ़े माँ-बाप

आज संतान
है माँ की हत्यारी
पिता के बैरी

लगते बोझा
वृद्घावस्था में रक्षक
वृद्घाश्रम पाते

गुरू ही देव
दे अनुपम ज्ञान
सुखी संसार

उल्फ़त खत्म
मोहब्बत आबाद
थमा कारवाँ

हँसते क्षण
गतिमय जीवन
बाधाओं संग

दुख के पल
सहता है जीवन
सपनों संग

लाखों सपने
कठिन है डगर
चलता चल

आशा में प्राण
अहसासों में प्राण
मोह को त्याग

Thursday 28 December 2017

हाइकु part 2

रहो सभी स्वस्थ
रक्तदान हो धर्म
है पुण्य कर्म

हंसवाहिनी
है बल-बुद्धि दात्री
ईप्सा सफल   

पुष्प सौरभ
मधुप मधुराए
प्राप्त गौरव

गहरे राज़
जलनीधि समाएँ
खुल न पाएँ

वन व सर
प्रकृति धरोहर
है मनोहर

राणा प्रसन्न
दे मीरा को माहुर
चाल विफल     

सागर तट
प्यासा है मुसाफिर
तृष्णा अतृप्त

जलधि जल
गहरा और खारा
सेलाब लाता

निर्झरी नीर
मधुर कहलाता
प्यास बुझाता

अमृत मन
मृदुभाषी संसर्ग
सुधा बरस

जीवन खेल
विरह और मेल
बढ़ाए प्रेम

क्षुब्धा न शांत
अन्नकूट आपार
लालच त्याग

मन से देखें
दृष्टिहीन ये जग
निर्मल मन

नग की बेल
है चाहती सहारा
बढ़ती ज्यादा

दल का दल
देश का रखवाला
सीमा रक्षक

दक्ष तपन
तीव्र ईर्ष्या अगन
भस्म सर्वस्व

तृष्णा बढ़ती
दुष्कर्म करवाती
मान घटाती

तमिस्र मिटे
विधा धन पा कर
ज्ञान प्रबल

आज के युवा
पढ़े-लिखे बेकार
देश का नाश

मौज मनाती
अनुसूचित जाति
नोट कमाती

पुजती नारी
मंदिर गृह द्वारे
लक्ष्मी है आवे   

असुर देव
नतशिर समस्त
नारी समक्ष        

नारी का क्रोध
ब्रह्मांड भी हिलाए
विनाश लाए    

जल ही प्राण
धरा हो खुशहाल
जीवनदान

बहती धारा
जीवन है हमारा
दिशा न पाए

झूठ का बीज
किसी काम न आए
दुर्गंध आए

गीता का सार
अब कौन सुनाए
अज्ञानी सारे

चोरी की माया
दूसरों की खुशियाँ
रास न आएँ

कानून अंधा
अन्याय का फ़ँसाना
कसता जाए

है दिशाहीन
नौकरशाही सारी
कौन बचाए

नवीन वर्ष   *
चहुँ ओर प्रकाश
नव प्रभात

नए विचार
नव वर्ष के साथ
मिले संमार्ग

प्रकृति गाए
सुरीला मलहार
विहग साथ

नव अंकुर
सकारात्मक भाव
करो प्रसार

देश सौहार्द
नव वर्ष के साथ
हो प्रसारित

देश के वीरों
नतमस्तक देश
तुम्हारे आगे

वीरों नमन
बलिदान तुम्हारे
आभारी हम

जन्म मरण
ईश्वर के हाथ में
कर्म किए जा

मन संभालो
बेकाबू हुआ जाए
दुर्गति पाए

धूल चटाता
बेलगाम तुरंग
हार दिलाता

घड़ी की सुई
कभी न थकती
संदेश देती

बर्फीली वात
बारिश की फुहार
प्यास बढ़ाए

नभ के पंछी
मदमस्त हुए जाएँ
नीड़ बनाएँ

बसंत आए
बसंती रंग छाए
विहग गाएँ

ऊँचा गगन
श्वेत है नभतल
इच्छा अनंत

जलधि धारा
लहर लहराए
उमंग छाए

बालू का ज़र्रा
रेत में मिल जाए
खेल खिलाए

बच्चों को भाता
समुद्र का किनारा
घर बनाना

डूबता रवि
है स्वर्णिम अधिक
शांत रश्मि

उषा फैलाए
उदित दिवाकर
धरा प्रसन्न             

सांझ ढले ही
गोधूलि-सी चाँदनी
मन लुभाए

गौ का गोबर
है शुभ कहलाता
पूजा है जाता

गौ मूत्र करे
रोगों का निवारण
स्वस्थ हो तन

राम सिया के
कंटक सारे काढ़े
वन के मार्ग

सुता हमारी
आँगन की दुलारी
सबकी प्यारी      

सुता-सुत हैं
मात-पिता की जान
प्यारी संतान   

लाज का पर्दा
नारी का अभिमान
सम्मान करो     

नोट बंदी थी
ये नेताओं की चाल
मचाई मंदी

हरित धरा
मन हुआ मयूरा
हर्ष से भरा

चित अशांत
देख देश का हाल
रोको विनाश

आज के युवा
बल-बुद्धि से प्रोत
संपूर्ण जोश

युवाओं जागो
अधर में है देश
इसे उबारो

खत्म करो ये
नेताओं का खेल
फैले शमन

देश के नेता
खूब मेवा हैं खाते
काम न आते

खंडित धागा
किसी काम न आता
गाँठ बनाता

टूटा बंधन
कड़वाहट लाता
जुड़ न पाता

उलझी डोर
सुलझाई न जाए
नष्ट हो जाए

जीवन मेरा
बालू का ज़र्रा बन
चमक रहा

चुनाव आएँ
नेता शोर मचाएँ
भूखे हो जाएँ

दीन का वोट
नेताओं को है भाए
दंगे कराएँ

घड़ी की सुई
मानव का जीवन
चलता जाए

नीला अंबर
ऊँचाई है दर्शाए
आशा जगाए

गोधूलि संध्या
विहग कलरव
प्रकृति रम्या

कनक बाली
कृषक बदहाली
पेट है खाली

शीत पवन
कोहरे की चादर
करे दमन

ओंस की बूंदे
मोती बन बिखरीं
जग प्रसन्न

वागीश माया
कलम की ताकत
देश जगाया

कपट त्यज
आत्मसात हो सत्य
सत्कर्म कर

पुष्प कंटक
रहते संग-संग
द्वेष को त्यज

बहुत प्यारे
सुत-सुता हमारे
घर के तारे     

जीवन साथी
सुख-दुख के संगी
बने सारथी     

सुप्त हैं नेता
है भ्रष्ट प्रशासन
कष्ट ही देता

जलधि तट
रेतीला घरौंदा ही
जल्द हो नष्ट

रेतीले स्वप्न
बिखर सभी जाते
मुट्ठी भी बंद

उदधि धारा
उफनती है जब
सैलाब लाती

जीवन नैया
भवंडर में फसती
बिना खिवैया

पर्णकुटिया
वनवास बिताया
रघु की माया      

शीतल चंदा
श्वेतांबर है नभ
धरा प्रसन्न

इंद्रधनुष
अंबर का गहना
वर्षा का फल

नेह बरसे
लाचारी है लाचार
देह तरसे

सिर पे कर्ज़ा
आँसू बन बरसा
मिले न दर्जा

आत्मदाह से
आत्महत्या करता
कृष मरता

कवि हमारे
पूरे देश के प्यारे
सत्य बताते

प्रभु भजन
प्राकृतिक सौंदर्य
उत्साही मन

नई उमंग
नव चेतना लिए
धरा प्रसन्न

नीम का वृक्ष
है रोग निवारक
दे मीठा फल

रोग हो नाश
नीम वृक्ष महान
करे कमाल

नीम दातुन
दंत रोग नाशक
अमूल्य रत्न

हर मर्ज़ पे
नीम करे कमाल
रोग समाप्त

नीम की छाया
जिस घर में छाई
जीवन दायी          

Tuesday 26 December 2017

नीरजा मेहता

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से प्रकाशित '' इडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स'' एवं ''ग्लोबल बुक ऑफ़ रिकार्ड्स'' से सम्मानित, राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका "ट्रू मीडिया" दिसम्बर - 2017 अंक जो नीरजा मेहता 'कमलिनी' (संघर्ष से श्रेष्ठ तक...) के व्यक्तित्व-कृतित्व पर केन्द्रित अंक का विमोचन गाज़ियाबाद के वैशाली में देश के गणमान्य साहित्यकारों के कर कमलो एवं सैकड़ो साहित्य प्रेमिओ के सम्मुख हुआ| इस कार्यक्रम के अध्यक्ष थे श्री रामकिशोर उपाध्याय जी, विशेष अतिथि थे डॉ ओम प्रकाश प्रजापति जी, श्री संजय देव जी, डॉ आभा नागर जी, श्रीमती नीरजा मेहता जी एवं मनोज कामदेव जी तथा सभागार में उपस्थित कवि और कवियित्री या थी सर्वश्री त्रिभुवन कौल जी, दिलदार देहलवी जी, ओमप्रकाश शुक्ल जी, डॉ पुष्पा जोशी जी, ए एस खान जी, नीरू मोहन जी, निधी मोहन भार्गवा जी, बसुधा कनुप्रिया जी, जसाला जी, मनीषा शर्मा जी, जगदीश मीना जी, राजेश वर्मा जी तथा मंच का शानदार संचालन मीनाक्षी सुकुमारन जी ने किया।आभार नीरजा जी। मनोज कामदेव

Tuesday 19 December 2017

हाइकु part 1

"हाइकु"
यह जापान की सबसे अधिक प्रचलित विधा है और कालांतर में भारत में भी  इस विधा पर बहुत काम हुआ है । प्रारम्भ में प्रकृति के सौंदर्य के वर्णन से होते हुए अब ये विधा सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ चुकी है ।
हाइकु लिखने की कला…

1) हाइकु में कुल तीन पंक्तियाँ  और सत्रह वर्ण  होते  हैं ।
2) इसमें आधा वर्ण  नहीं गिना जाता ,
जैसे अच्छा --दो वर्ण
3) हाइकु की प्रथम एवं तृतीय पंक्ति में पाँच वर्ण  तथा दूसरी पंक्ति में सात वर्ण  होते हैं।
4) हाइकु की तीनो पंक्तियाँ स्वतंत्र होती हैं 5) एक पंक्ति को तोड़-मरोड़ के तीन पंक्ति बना देना हाइकु नहीं है ।
6) हाइकु बिम्ब विधान की बोली द्वारा बोलता है ।
7) एक अच्छे हाइकु की तीनो पंक्तियाँ सर्वथा पूर्ण स्वतंत्र होती हैं लेकिन तीनों मिलकर एक बड़ी और प्रभाव पूर्ण कविता रचती हैं ।
8) सतही ..हल्की फुल्की अभिव्यक्तियाँ हाइकु की प्रकृति से मेल नहीं खाती ..
9) किसी वाक्य कथन को ..5-7-5  के वर्णक्रम या बिम्बरहित भाव ..सतही तुकबंदियाँ हाइकु नहीं होते ।
10) हाइकु में यदि गहन भावबोध या पूर्ण बिम्ब की रचना नहीं हो पाती तो हाईकु अपनी प्रखरता खोने लगता है ।
चूंकि हाइकु बिम्ब प्रधान होता है ।

          

मिट्टी का माधो
मत बन इंसान
जीवन साध

क्रोध है आता
भवंडर मचाता
त्रासदी लाता

प्रात: की बेला
उदित प्रभाकर
लगा है मेला

तरु की छाया
है राहत दिलाए
प्रभु की माया

बही बयार
मुस्काई है प्रकृति
गाए मल्हार

सर्दी की मार
गरीब सहे जाए
दिखे लाचार

कुर्सी के मारे
नेता सभी हमारे
लगाएँ नारे

स्वार्थ में नेता
करता है पाखंड
बेहाली देता

सद् विचार
बढ़े कुल की शान
सजे आचार

ज्ञान कुबेर
प्रवाहित हमेशा
भौर सवेर

वंदनवार
सुशोभित है द्वार
आए बहार

शिक्षक सारे
ज्ञान…गुणों की खान
प्राण सँवारे

विद्या है धन
निष्फल न ये जाए
बढ़ाए ज्ञान

जीवन पथ
अथक परिश्रम
बने सुपथ

छात्र-छात्राओं
अनुशासित रहो
विद्या को पाओ

अथक श्रम
आशाएँ फलीभूत
रे मन झूम

सर्द हवाएँ
दरिद्र को सताएँ
बहती आएँ

ऊँची फुनगी
नीड़ से सुसज्जित
विहग संगी

उत्तम कर्म
सम्मान हैं बढ़ाते
मिटे अधर्म

प्रकृति सारी
पोषित है करती
धरा हमारी

बने है ज्ञानी
अज्ञान में अज्ञानी
करे नादानी

कटु वचन
अहंकार से भरे
मलिन मन

तिरंगा प्यारा
गणतंत्र हमारा
सबसे न्यारा

राम की सिया
वनवासिनी हुई
संग हैं पिया     

पढ़ें बेटियाँ
शिक्षित परिवार
मिलें खुशियाँ   

ज्ञान का दीप
विद्यार्थी हैं प्रदीप्त
देश संदीप

शीत लहर
बारिश संग आए
मेरे शहर

बेबस नारी
कुछ कह न पाती
सहे लाचारी   

तन्हा जीवन
खुशी की तालाश में
नहीं मिलन

मन की पीर
घायल कर जाती
बहते नीर

दामन करे
चीख पुकार अब
मासूम मरे

नैतिक मूल्य
रह गए है कम
शिक्षा का अंत

भावी पीढ़ी है
अंधकार में लुप्त
शिक्षा त्रुटिपूर्ण

छात्र हुए है
अनुशासनहीन
शिक्षक मूढ़

भेड़चाल है
देश बदहाल है
शिक्षा कहाँ है

सुप्त शासन
अपना राज-काज
स्कूल आबाद

गूढ़ निर्बल
मूढ़ है सिरमौर
शिक्षा बेमोल

सद्आचरण
क्रोध का करे नाश
मन हो शांत

मिट्टी का माधो
मत बन इंसान
जीवन साध

क्रोध है आता
भवंडर मचाता
त्रासदी लाता

चाँदनी रैन
प्रकाशित है जग
श्यामल मन

संध्यागीत-सी
चाँदनी हुई शीत
उषा विलीन

मटमल व्योम
तिरछा रजनीश
सजन पीर

क्षीर्ण मंदार
पक्षीगृह प्रस्थान
शशि प्रकाश

गोधूलि बेला
निशापति प्रधान
तिमिर वास

करवा चौथ
साजन का श्रृंगार
मयंक बाट        

शब्दों का मेल
भाव सरिता बेल
हाइकु खेल

सुवर्ण दीप्ति
अरूण संग सृष्टि
सुभग वृति

अंबर तल
नभचर हैं मस्त
वृष्टि दे जल

अंबुद मन
आलस सब त्यज
नवसृजन                  

सांझ की बेला
आनंदित है मन
चित्त अकेला

रात चाँदनी
बिखरा-सा आँचल
पिया दामिनी       

चंद्र तारक
प्रकाश विस्तारक
तम नाशक

माँ का आँचल
होता जिनके पास
प्राण सफल    

हाइकु विधा
नहीं होती सुभीता
वागीश सुधा

मैया की गोद
सुरक्षित बहुत
मिले प्रमोद      

अटल मन
सन्मार्ग पर चल
सफल बन

वृति का वश
गहन अध्ययन
मिलेगा यश

दृढ़ विश्वास
कार्य के प्रति चाव
सफल प्रयास

चींटी का श्रम
कभी न हो विफल
नहीं ये भ्रम

गली का कुत्ता
सगा कभी न होता
जात दिखाता

कवि कलम
सच्चाई है दर्शाती
तम मिटाती

साहित्यधारा
कुसुमाकर भांति
चित संवारा

प्रभात संग
नवबेला आरंभ
मन प्रसन्न

हर्षित मन
स्वर्णिम प्रभात
खिला वदन

कल्पित रैना
संग उडु तारिका
तरसे नैना

सुवर्ण दीप्ति
अरूण संग सृष्टि
सुभग वृति

सड़क पार
करना है मुश्किल
भीड़ की मार

भारत देश
भिन्नताएँ अनेक
भाता स्वदेश

खर की पीर
भर्तार नहीं जाने
बने है क्रूर

करो उत्सर्ग
मोक्ष प्राप्त करोगे
मिलेगा स्वर्ग

है सेवाभाव
आत्मा की अनुभूति
हो आविर्भाव

गुरू बताए
संसार है पुस्तक
पढ़ी न जाए

बच्चे हमारे
नभ में जैसे तारे
ईश के प्यारे

सुनो!…… श्रीमान
सुरक्षा अभियान
बचाए जान

बच्चे मनाएँ
क्रिसमस त्योहार
तोहफ़ा पाएँ

बच्चे प्रसन्न
सेंटा का इंतज़ार
मीठे हैं स्वप्न

आँख में नीर
दर्द का संगी-साथी
सहता पीर

नयनजल
बयाँ दर्द करता
मिले न हल

सूर्याय नम:
नवबेला आरंभ
अमृत मन

विहग गान
स्वर्णिम उषाकाल
है सूर्यभान

अटल मन
सन्मार्ग पर चल
सफल बन

वृति का वश
गहन अध्ययन
मिलेगा यश

दृढ़ विश्वास
कार्य के प्रति चाव
सफल प्रयास

केक खिलाओ
बड़ा दिन है आया
तोहफ़ा पाओ

सेंटा की झोली
खुशियों की पोटली
बच्चों को भाए

तम फैलाए
मावस रजनीश
असित छाए

माँ का प्रणय
खरे सोने की खान
अभयदान     

मात आत्मज
आँचल में निर्भय
अंक में सोए        

कान्हा की बंसी
गोपियाँ इठलातीं
राधा खिजाती     

शैलजा तीर
राधिका की गगरी
फोड़े ललन         

श्याम मुरली
रास रचाए आली
रम्या दीवानी       

शूलों की सेज
राणा जी भिजवायो
कान्हा बचायो      

माखन खाए
रासलीला रचाए
कान्हा सताए

विष का प्याला
जब मीरा ने पिया
सोम हो गया      

दृढ़ विश्वास
पाई नई मंज़िल
सिद्ध प्रयास

सामान्य जाति
आरक्षण की मारी
फिरे है खाली

घर का भेदी
विभूषण कहाए
सुनामी लाए

किए जा कर्म
गहन अध्ययन
मिलेगा यश

अटल मन
सन्मार्ग पर चल
सफल बन              

आगमन कविता कुंभ हापुड़

रविवार २९ अक्टूबर २०१७ हापुड़ जनपद में प्रथम बार आगमन समूह के तत्वाधान में कविता कुंभ २०१७ के भव्य आयोजन में विशिष्ट और शिष्ट जन की उपस्थिति में काव्य पाठ और कार्यक्रम संचालन का अवसर प्राप्त हुआ । माँ शारदे की उपस्थिति और कृपा से आगमन साहित्यिक समूह की राष्ट्रिय कार्यकारिणी सदस्य के रूप में सम्मान स्वरूप शॉल और प्रतीक चिह्न प्राप्त कर मैं गौरवांवित हूँ  । मैं पिता तुल्य पवन सर और समस्त आगमन परिवार का सहृदय धन्यवाद करती हूँ ।
*मंजिल यूँ ही नहीं मिलती मुसाफिर को अंजान सफर में, विश्वास की डोर ही है जो उसे मंजि़ल तक पहुँचाती है । रास्ते तो बहुत मिल जाते है मगर डगर सही तभी मिलती है जब कोई बड़ा साथ हो और बड़ो का आशीर्वाद साथ हो।***

मानव रचना

एक अंडज के उद्गम से
नव सृजन उद्भव आया
सृष्टि सर्जक का खेल
नव संसार में रचाया
शनैः शनैः विस्तार पा
आत्मा का कण समाया
क्रमिक विकास क्रम में
देह तन का स्वरूप पाया
बढ़ चली काया
रच चली माया
सप्तवर्ण सप्तद्वार से
जीव संवहन स्वरूप पाया
भावों संवेगों के प्रबल प्रवाह को
अभिव्यक्ति रूप में दर्शाया
बढ़ चला पुनश्च शनैः शनैः
लंबाई चौड़ाई ऊँचाई संग संग
मानसिक संवेगों की बदली काया
नव चेतना संवर्धन का फिर
नित नव पाठ पढ़ती काया
दिग्भ्रमित छद्म आभास का
शिक्षा से दूर हुआ साया
कभी मंथर कभी द्रुतगति से
बढ़ती चली गई काया
कहने लगे लोग अब
हे ईश्वर कैसी तेरी माया
एक निश्चित आयु पर आकर
तन का वृद्धि विकास अवरुद्ध हुआ
सामाजिकता की बढ़ चली माया
जीवन की आपाधापी संग संग
अहसास जज्बातों की मिली छाया
उम्र बढ़ती कि जीवन घटता
पुनरुत्पादन का क्रम चल पड़ता
अनवरत विकास क्रम में
पहियों सा इंसान चल पड़ता
विविध समयाकाल बिताकर
अनुभव निधि का नर संचय करता
दुनियादारी की चक्की में नित पिसता
यकायक जर्जर होती काया
उम्र ने अब असर दिखाया
आत्मा के गमन का
नियत वक्त जब आया
अंडज के विकासक्रम के
लुप्तप्राय होने का वक्त आया
समेट अनुभवों अनुभूतियों से
यादों में बस सिमटकर रह गई काया
इतनी क्षीण बारीक सूक्ष्म रूप से
कैसे छिटककर रह गई
हरओर ईश की माया

© नीता सिंह बैस

लघुकथा:औरत की चीख।
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'यार ये औरतें इतना रोती, चीखती क्यूं हैं ?'

कहीं एक औरत को रोते देखकर एक मर्द ने दूसरे मर्द से पूछा।

प्रत्युत्तर में दूसरे मर्द ने कहा-

'प्रणय के अतरंग क्षणों में जब स्त्री चीखती है,पुरुष का पुरुषत्व गर्व से दोहरा हो जाता है.....

शायद इसलिए औरत चीखती है।

अपनी कुक्षी से मांस का लोथड़ा निकालते वक़्त औरत सोंचती है कि 9 महीने तक अपने खून और वात्सल्य से अभिसिंचन के बाद उसने जिस निस्पंदप्राय लोथड़े को जन्म दिया है उसे एक सक्षम,सशक्त मानव में परिणित करने के लिए उसे और न जाने क्या क्या कब तक देना होगा.....

शायद इसलिए औरत चीखती है।

जब वह औरत उसी मानव की जात एक पुरुष को उसके धमनियों में अपने उधार दिए धमकते लहू की थाप पर इतराते देखती है,औरतों के कोमल बदन और कोमलतर मन पर अपने बाहूबल को आरोपित करते देखती है तो उसे अपनी ज़िंदगी का सारा उपक्रम अबस लगता है....

शायद इसलिए औरत चीखती है।

जब औरत स्त्री-कुक्षी से जन्मे पुरुष को कुत्सित भावों में आशक्त अट्टहास करते अपने वासना-शिक्त पुरुषांग से बलात स्त्री-कुक्षी को हीं ध्वस्त करते देखती है तो उसका ईश्वर पर से विश्वास उठ जाता है...

शायद इसलिए औरत चीखती है।'

दूसरे मर्द के इस जवाब के बाद प्रश्नकर्ता के होठों पर एक शर्म भरी चुप्पी आरूढ़ हो गई।

-पवन कुमार श्रीवास्तव की मौलिक रचना।