Sunday 29 July 2018

21वीं सदी में नारी की दशा और दिशा

"यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता" की वर्तमान वास्तविकता : 21वीं सदी में नारी की दशा और दिशा

नारी है कमजोर नहीं तू
शक्ति की संवाहक है
मातृभूमि को पावन करती
नारी को दुखहारक है ।।

यह माना जाता है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता का वास होता है मगर देखा जाए तो आज नारी को पूजनीय नहीं प्रयोग की वस्तु समझा जाता है और उसके चारों तरफ यमराज विद्यमान रहते हैं । पता नहीं कब उसके लिए मौत लेे आएं । चाहें परिस्थितियां कैसी भी हो जाएं … नारी पूजनीय है और रहेगी क्योंकि एक समाज , घर , देश और इन सबसे ऊपर इस धरा की ' रीड़ की हड्डी ' है । जिसके ना होने से यह संसार अपाहिज हो जाएगा । 

नारी जिसका स्थान प्राचीन काल से ही नमन और वंदनीय है वह नारी आज भी इस भू-लोक पर वंदनीय है । नारी स्वयं शक्ति है फिर क्यों उसके सशक्तिकरण की बात करना आवश्यक हो गया है । नारी को सृष्टि की रचना का मूल आधार माना गया है नारी देवलोक में नहीं जीवलोक में भी पूजनीय है । नारी शक्तिशाली है और फिर उसी की सशक्तिकरण की बात करना क्यों आवश्यक हो गया है भारतीय समाज में आज भी महिलाओं को लेकर दोहरे मापदंड है । एक तरफ तो मानव उसे पूजनीय कहता है और दूसरी तरफ उसी का शोषण करता है । घर हो या बाहर दोनों तरफ महिलाएँ प्रताड़ित होती है आज अगर स्थिति देखें तो नारी को स्वयं अपने क्षेत्र में सशक्त होने की आवश्यकता है । आज नारी अगर नारी को सम्मान देगी तभी हम परिवारों में हो रही हिंसा को मिटा पाएँगे । स्त्रियों के साथ बाहर  घर परिवार में हो रही हिंसा को मिटाएँ बिना समाज में महिला सशक्तिकरण का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता ।

नारी सशक्तिकरण का अर्थ- महिलाओं में सम्मान आत्मनिर्भरता आत्मविश्वास और आत्म-जागरूकता के साथ-साथ आत्म शक्ति जागृत करना ही वर्तमान समय एक महत्वपूर्ण कार्य है । नारी को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है अगर वह अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग और आत्म निर्भर है तो उसका सम्मान नील गगन तक ऊँचा उठ जाता है और वह देश के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है । अरस्तु के कथनानुसार "किसी भी राष्ट्र की स्त्रियों की उन्नति या अवनति पर ही उस राष्ट्र की उन्नति व अवनति निर्धारित होती है ।" आज आधुनिक युग की नारी का कार्यक्षेत्र परिवार तक ही सीमित नहीं है वह कामकाजी नारी के रूप में उभरकर सामने आई है आज आधुनिक युग की नारी पुरुषों के पीछे नहीं है बल्कि आगे निकल गई है । वह परिवार पालती है , घर चलाती है और घर के बाहर काम पर भी जाती है इन सब कार्यों के चलते अपने बच्चों पर भी पूरा ध्यान रखती है और उन्हें संस्कारों से पोषित करती है  आज की नारी घर की चारदीवारी के भीतर और बाहर दोनों जगह रहकर अपनी अहम भूमिका निभाती है फिर भी नारी सशक्तिकरण की बात क्यों कही जाती है इसलिए क्योंकि आरंभ से ही समाज का स्वरूप पुरूष प्रधान रहा है । जिसमें पुरुष को ही परिवार का मुखिया और सर्वोपरि माना जाता था और स्त्री को घर चलाने वाली दया , करुणा , ममता की मूरत समझा जाता था । समय बदल रहा है अब वह स्थिति नहीं रही । नारी रिक्क्षा से लेकर हवाई जहाज तक उड़ आती है । आज वह घर के आंगन से लेकर जंग के मैदान में भी अपना जौहर दिखाती है । आधुनिक भारत , आधुनिक युग की नारी किसी से डरती नहीं । आज की नारी को मर्दों के समान काम करने और शिक्षा  प्राप्त करने का अधिकार है परंतु फिर भी अभी भी उसे पूरा न्याय और अधिकार नहीं मिल पा रहा है शायद इसलिए कि आज भी समाज पुरुष प्रधान ही है और शायद वह स्वयं स्त्री को आगे निकलने देना नहीं चाहता जहाँ तक मेरे विचारों का सवाल है जब तक नारी को उचित आदर- सम्मान प्राप्त नहीं होगा विकास संभव नहीं है । आज भी बहुत से ऐसे समाज हैं जहाँ उन्हें घर से बाहर जाने की मनाही है , पति के मर्णोपरांत उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता उनको आधारभूत साधनों से भी वंचित कर दिया जाता है । अभी भी जाति-पाती के बंधनों के रहते बहुत से समाजो में बेमेल विवाह और गैरजाति विवाह प्रतिबंधित हैं । आज भी कई समाजों में लड़कियों के गैर जाति के साथ प्रेमसंबंध रखने और विवाह करने मनाही है और जो लड़कियाँ परिवार के खिलाफ जाकर ऐसा कदम उठाती हैं  उन्हें जिंदा भी जला दिया जाता है…वह भी सरेआम और लोग तमाशबीन बने खड़े रहते हैं । शिक्षा महिला सशक्तिकरण में अहम भूमिका निभा सकती हैं । शिक्षा महिलाओं के लिए मील के पत्थर के समान है । आज के संदर्भ में देखा जाए तो जहाँ हम महिलाओं और बच्चियों की बात करते हैं तो वह आज भी सुरक्षित नहीं है आज पुरूषों की कामोवेश की भावना छोटी-छोटी बच्चियों को भी अपने गलत इरादों का शिकार बना रही है ।

नारी है गंगा, नारी है यमुना ,
नारी धरा और आधार है ।
नारी से बल-बुद्धि मिलती ,
नारी शक्ति का भंडार है ।

आज नारी की दशा देखकर कुछ सवाल मन में आते हैं …
*नारी स्वयं शक्ति है तो क्या उसे सशक्त होने की आवश्यकता है ?
*क्या आज सही मायनों में नारी को मान-सम्मान प्राप्त हो रहा है ?
*क्यों आज भी नारी अपने को अकेली पाती है ?
बहुत से ऐसे प्रश्न है जिसके उत्तर हमें पता हैं पर फिर भी हम अंधे और बहरे बने रहते हैं ।
*मृदुला सिन्हा जी की 'उऋण' कहानी में एक ऐसे ही नारी का चित्रण किया गया है जो नौकरी पेशा है और भागदौड़ भरी जिंदगी में जिस तरह से अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती है कहीं-कहीं पर कमजोर निर्णय लेते हुए भी बताया गया है ।
*मृदुला गर्ग के उपन्यास 'कठगुलाब' की नारी पर हुए बहुत से अत्याचारों को बयान किया गया है । उनका उपन्यास नारी वेदना के साथ-साथ नर-नारी के संबंधों को भी उजागर करता है । कठगुलाब का प्रतीकात्मक अर्थ है …नारी की जिजीविषा मृदुला जी ने माना है कि नारी गुलाब नहीं है वह कठगुलाब है जिसे देखभाल के साथ खिलना ही पड़ता है । कठगुलाब पुरुष प्रधान समाज में नारी के शोषण और उसकी मुक्ति की कथा है ।
*सुभद्रा कुमारी चौहान ने स्त्री स्वतंत्रता की बातें 'दृष्टिकोण' कहानी के माध्यम से दर्शाई हैं " जितना इस घर में आपका अधिकार है उतना ही मेरा भी है यदि आप अपने किसी चरित्रहीन पुरुष मित्र को आदर और सम्मान के साथ ठहरा सकते हैं तो मैं भी किसी असहाय अबला को कम से कम आश्रय तो ही सकती हूँ । 'दृष्टिकोण' की निर्मला में सुभद्रा जी का व्यक्तित्व मिलता है जो पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बगैर किसी लिंग भेदभाव के चलती हैं । इन सभी बातों से हम यह तो कह सकते हैं कि नारी न पहले शक्तिहीन थी और न ही आज है पर पुरुष प्रधान समाज ने अपनी मानसिकता को जड़ कर रखा है जिसमें उसने स्त्री को कमजोर समझा है । अगर देखा जाए तो आज नारी नर से आगे ही है हर क्षेत्र में अपना दबदबा बनाए हुए निरंतर आगे बढ़ती जा रही है घर से लेकर राजनीति तक के मैदान में उसने अपना लोहा साबित किया है । क्या हमारा देश कल्पना चावला को भूल गया ? मैरी कॉम, साइना मिर्जा , सायना नेहवाल और भी कई ऐसी जानी-मानी नारी पात्र हैं जिन्होंने अपने देश के सम्मान के लिए कुछ कर दिखाने का ज्ज़बा दिल में रखा है देश और समाज को गौरवान्वित किया है मगर फिर भी  आज की स्थिति पक्षपात पूर्ण है । आज भी कहीं न कहीं मर्द के द्वारा ठुकराई जा रही है , घर परिवार और ससुराल में अपमान सहती है । आज लड़कियों को अपनी आबरू बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है ।

क्यों आज हर माँ को यह कहने की स्थिति में पहुँचा दिया है कि…
'अगले जन्म मुझे बिटिया न दीजो' और 
एक बेटी को यह कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि… 
'अगले जन्म मुझे बिटिया ना कीजो'

आज देश में जो हालात हैं छोटी-छोटी बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं उनको यूँ कुचला जा रहा है मानो वो इंसान नहीं कोई खिलौना हों । लक्ष्मी कही जाने वाली, नवरात्रों में पूजी जाने वाली इन कन्याओं के साथ ऐसा कुकर्म करके कैसे यह हैवान चैन से रहते है । क्या इनका ज़मीर मर गया है ? क्या इनके लिए कानून अँधा हो जाता है या वाकई में कानून की आँखों पर पट्टी बँधी है जो देश की बेटियों को सुरक्षित नहीं कर पा रहा है । आए दिन ऐसी घटनाएँ देखने को मिल जाती हैं क्या सत्ताधारी लोगों को दिखाई और सुनाई देना बंद हो गया है ? आज हालात हैं कि नेता कहते रहते हैं । हमें देश की चिंता है । हम देश हित के लिए सोचते है । देश की सीमा सुरक्षित होनी ज़रूरी है । उनको कौन समझाए कि देश को ख़तरा देश के बाहर वालों से नहीं देश के अंदर वालों से है । जिस देश की जनता सुरक्षित नहीं है छोटी-छोटी बच्चियाँ सुरक्षित नहीं हैं ऐसे देश में सीमा सुरक्षा की बात बेमायने प्रतीत होती है ।

आज हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते हैं । उन्हें क्या पड़ी है कि वह सोचें कि देश में क्या हो रहा है, देश किन स्थितियों से गुज़र रहा है । देश के अंदर क्राइम, भ्रष्टाचार लूट, अत्याचार, हैवानियत बढ़ती जा रही है । दूसरी और नेताओं को एक दूसरे पर छींटाकशी करने से फुर्सत ही नहीं है । एक छोटी बच्ची के साथ हैवानियत की हद पार कर दी जाती है उसे बेपर्दा कर छोड़ दिया जाता है । ऐसे हैवानों को क्या कहा जाए जो इस तरह का कुकर्म करने के लिए हैवानियत की सीमा लाँघकर किसी मासूम के साथ ऐसा बेरहम व्यवहार करते हैं कसाई से भी ज्यादा जल्लाद हो चुके हैं आज की ये असंस्कारी जात । जो न किसी धर्म, जाति और समुदाय सेसंबंध रखती है । इनकी सिर्फ़ एक जाति 'जल्लाद' ही हो सकती है । 

मंदसौर की इस घटना ने 'निर्भया कांड' का जख्म ताज़ा कर दिया है । निर्भया कांड के बाद डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ इस तरह के अमानवीय व्यवहार और उसे जिंदा जलाया जाना हमारी व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाता है । क्या कर रही है हमारी सरकार … हर रोज़ एक निर्भया का मर्म हमारे समक्ष हमारी रूह को कंपन दे रहा है । इन बच्चियों के साथ क्या इंसाफ नहीं होगा ? क्या इस निम्न स्तर तक हैवानियत करने वाले खुलेआम ऐसा जघन्य अपराध करते रहेंगे ? क्यों नहीं उनके ख़िलाफ हमारे देश की सरकार कोई सख्त कानून बनाती जिससे इस अपराध को करने की सोचने वालों की रूह तक कांप जाए । क्यों नहीं सरकार ऐसे लोगों को अपंग बनाकर सूली पर नहीं चढ़ाती ? ऐसे हैवानों की तो पहले आँखें नोच लेनी चाहिएँ जिससे वह देवी रूपी कन्या को गन्दी और तुच्छ नज़रों से देखते हैं उसके बाद उनके हाथों को काट डालना चाहिए जिससे वह उसे छूते हैं और अंत में उन्हें नपुंसक बना कर जिंदा चौराहे पर लटका कर जला देना चाहिए जिससे उन्हें एहसास हो कि एक बच्ची के साथ जो वह करते हैं वह कितना मार्मिक है । ऐसे हैवानों को तड़पा-तड़पा कर मृत्यु के द्वार पर अधर लटका देना चाहिए जिससे मौत माँगने पर ये राक्षस मजबूर हो जाएँ 

आज इंसानियत कही खो गई है । देशवासी यह क्यों नहीं समझते बेटी…सिर्फ़ बेटी है । न वो हिंदू न मुसलमान है न सिख न ईसाई है वह एक मासूम है … वह बेटी है । पृथ्वी पर इंसान को सभ्य कहा गया है क्या वाकई में वह सभ्य है । क्यों इंसान इंसानियत इंसानियत त्याग असभ्य बनता जा रहा है । एक जानवर की भांति व्यवहार कर रहा है । क्या यही विकास है …अगर ऐसा कुकृत्य विकास की दिशा का निर्वाह करेगा तो ऐसा विकास नहीं चाहिए जहाँ संस्कारों की हत्या कर विकास का नाम दिया जाता है । देश…देश… देश… का रोना रोता रहता है हर नेता , मेरा देश, मेरा वतन का राग अलापता है ; उन्हें पता ही नहीं इसकी परिभाषा क्या है । जिस प्रकार एक घर चारदीवारी से नहीं उसमें रहने वाले लोगों से घर कहलाता है उसी प्रकार एक देश का अस्तित्व भी उसमें रहने वाले लोगों , उनकी सुरक्षा से संबंध रखता है ।

हमारा देश बहुसांस्कृतिक देश है जहां हर कौम, जाति, धर्म और समुदाय के लोग रहते हैं । जाति और धर्म के नाम पर दर्द को अाँकना कहाँ का न्याय है । आज बहुत ही विकट समस्या है संस्कारों के ह्वास की जिसका परिणाम है जीवन में पीड़ा, दर्द और भावनाओं का स्थान का नगण्य हो जाना । किसी को भी किसी अन्य की पीड़ा और दर्द का एहसास नहीं होता । मनुष्य स्वार्थी होता जा रहा है । आज बेटियाँ घर या बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं  दरिंदे घात लगाकर बैठे रहते हैं । माँ अपनी बेटियों को घर से बाहर भेजने से घबराती हैं । जब तक बेटी घर वापस नहीं पहुँचती माँ-बाप की चिंता का विषय बनी रहती हैं । क्या ऐसे समाज की कल्पना की थी हमने ? क्या हम ऐसा समाज चाहते थे जहाँ हर कदम पर खतरा… खतरा…और सिर्फ़ खतरा ही है । मैं अपनी और पूरे देश की जनता की तरफ से कहना चाहती हूँ कि जब तक इस अपराध के लिए सख़्त कानून नहीं बनेगा तब तक ऐसे दरिंदे रोज़ ही किसी न किसी मासूम को अपने गलत इरादों की भेंट चढ़ाते रहेंगे ।

सोए हो क्यों …तुम्हें जगना होगा ।
बहन, बेटी की लाज की ख़ातिर
नया नियम कोई घड़ना होगा ।
करे न कोई बेपर्दा इनको
कानून ऐसा तुझे घड़ना होगा ।
रूह कांपें ज़ालिम की बस अब
ऐसा न्याय तुझे करना होगा ।

*निष्कर्ष*
माना कि स्त्रियां पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है फिर भी दया, करुणा, ममता, त्याग और प्रेम की मूरत समझी जाने वाली नारी आज भी समाज में वह दर्जा नहीं प्राप्त कर पाई है जो उसे मिलना चाहिए था । राजनीति से लेकर ग्लैमर की दुनिया तक नारी शोषण की शिकार होती आई है और हो रही है । आज भी अभिनेत्री बनने के लिए एक लड़की को कास्टिंग काउच का शिकार होना पड़ता है आज भी समाज के कुछ ऐसी वर्गों में जहाँ स्त्री शिक्षा पर रोक लगाई हुई है लड़कियों को सिर्फ इतना पढ़ाया जाता है कि वह घर परिवार को पाल सकें । सरकार की तरफ से हर एक कदम पर सुधार की प्रक्रिया चल रही है और वह चलती रहेगी । लड़कियों पर हो रहे अत्याचार और उनका शोषण यही बता रहा है कि अभी भी कहीं न कहीं समाज में स्त्रियों की दशा में सुधार की आवश्यकता है और जब तक सरकार की तरफ से कोई सख्त कानून नहीं बनता तब तक स्थिति स्थिर ही बनी रहेगी । आज भी स्त्री का यौन शोषण करने वाले खुलेआम शान से चलते हैं और सिर उठा कर जीते हैं ऐसे लोगों के लिए सख्त कानून नहीं होगा तो नारियों की दशा में सुधार आना मुश्किल है । प्राय: देखा गया है कि रोज़ सोशल मीडिया पर बच्चियों के साथ यहाँ तक की बालिग और नाबालिग लड़कियों के साथ ऐसी घटनाएँ घटती रहती है परंतु सरकार की सुप्त अवस्था वाली प्रतिक्रिया बनी रहती है । मानो देख कर भी अनदेखा और सुन कर भी अनसुना कर दिया गया हो । जब तक नारी पर घर और बाहर इसी प्रकार के अत्याचार होते रहेंगे तब तक नारी सशक्तिकरण की बात बेमानी है । हमें पहले समाज का दृष्टिकोण बदलना होगा तभी हम इस दिशा में कुछ सफलता पा सकते हैं जब तक औसतन से ऊपर महिलाओं पर होने वाले अत्याचार नहीं रुकेंगे तब तक नारी की स्थिति में सुधार नहीं आ सकता । आज भी घर से बाहर काम करने वाली महिलाएँ पुरुषों के दवाब में जी रही हैं । कहने की बात है… स्त्री स्वाबलंबी हो गई है परंतु आईना यह बताता है कि आज भी लैंगिक भेदभाव होता है । लड़कियों को पैदा कर यूँ ही सड़कों पर कूड़े के डिब्बे में छोड़ दिया जाता है । बस इसलिए क्योंकि वह बेटी है समाज यह क्यों नहीं समझता कि बेटीने ही इस समस्त जीवलोक को रचा है और अगर ऐसे ही इसका शोषण होगा तो यह धरा भी नहीं बच पायेगी । मनुष्य का अस्तित्व ही नष्ट हो जाएगा ।

21वीं सदी की नारी ना समझो अबला यह सबला बनी है ।
क्या है दिशा इसकी, क्या दशा इसकी बनी है ।
यह शोषित होकर भी सबके लिए जिजीविषा बनी है ।
कहानी इसकी नहीं खत्म हो सकती तेरे कमज़ोर कहने से ।
यह स्वयं शक्ति, शक्ति का भंडार है… धरा इसी से बनी है ।

ग्रंथावली
सुभद्राकुमारी चौहान- नारी हृदय तथा अन्य कहानियाँ
मृदुला सिन्हा - कहानी 'उऋण'
मृदुला गर्ग - कहानी 'कठगुलाब'

डॉ नीरू मोहन 'वागीश्वरी'


Monday 23 July 2018

Crown women of substance celebrity award at hotel samraat

साहित्य और सामाजिक कार्यों में उत्कृष्ट योगदान हेतु नीरू मोहन 'वागीश्वरी' जी सम्मानित।

साहित्यकारा नीरू मोहन 'वागीश्वरी' Crown Woman Of  Substance Celebrity Award से होटल सम्राट में फिल्म जगत की जानी-मानी हस्तियों रज़ा मुराद , अली खान और अवतार गिल द्वारा साहित्य लेखन और सामाजिक कार्यों में अपने उत्कृष्ट योगदान हेतु सम्मानित हुई ।

Tuesday 17 July 2018

शोधपत्र-प्रारूप

प्रारूप शोधपत्र-

1. शोधपत्र की संरचना - शोधपत्र निम्नलिखित विन्दुओं के अध्यधीन संरचित हो -
1. शोधपत्र का शीर्षक।
2. लेखक/लेखकों का नाम उनके ईमेल संकेत के साथ (लेखक/लेखकों का परिचय उनके नाम/नामों में सिम्बल लगाकर, नीचे फुटनोट् में प्रस्तुत किया जाना चाहिए)।
3. सार-संक्षेप।
4. की-वर्ड्स (शोधपत्र के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्द जो आन-लाइन-सर्च में सहायक हों)।
5. शोधपत्र (हेडिंग्-सहित या हेडिंग्-रहित)।
6. स्वीकृति-पत्र (यदि आवश्यक हो) -
o क. किसी पाण्डुलिपि के पूर्ण प्रकाशन हेतु अत्यावश्यक।
o ख. सचित्र पाण्डुलिपियों के चित्र, अन्य चित्र, संग्रहालयीय पुरातात्त्विक महत्त्व की वस्तुओं से संबन्धित शोधपत्रों में यदि इनके चित्र दिए गए हों तो सम्बन्धित संस्था, अधिकारी अथवा स्वामी द्वारा निर्गत स्वीकृति-पत्र अत्यावश्यक।
7. उपसंहार / निष्कर्ष
8. सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची

2.  ‘सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची’ का प्रारूप

क. शोधपत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों के लिए -
1. Gode, P. K., “The Bhagavadgita in the pre-Shankaracharya Jain sources”, ABORI, vol.-20, part-2, January-1938, pp.188-194, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona.

ख. प्रकाशित-ग्रन्थों के लिए -
1. Krishnamachariar M., (Ed.) 2009. History of Classical Sanskrit Literature. Motilal Banarsidass, Delhi-110 007. India.
2. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, मिश्र, प्रो. जयमन्त (सम्पादक), २००३ ई., संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास (पंचम-खण्ड : गद्य), उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, भारत.

3. फॉण्ट -
1. अंग्रेजी-भाषा के लिए ‘टाइम्स न्यू रोमन’- वर्ग के फॉण्ट एवं हिन्दी-संस्कृत भाषाओं के लिए ‘यूनिकोड् मंगल’-वर्ग के फॉण्ट का प्रयोग किया जाना चाहिए।
2. जनकृति में प्रेषित शोधपत्रों के लिए उपर्युक्त को छोड़ किसी अन्य फॉण्ट का प्रयोग न करें।

4. विशिष्ट प्रस्तुतीकरण
1. शोधपत्रों की प्रस्तुति में विशिष्ट साज-सज्जा, आकृतियों, कालम, टेबल्स, वृत्त आदि का प्रयोग न करें।
2. अत्यन्त आवश्यक होने पर ही कालम, टेबल्स, चार्ट्स का प्रयोग करें।
3. यदि शोधपत्र अपरिहार्य रूप से किसी विशेष प्रस्तुतीकरण (फार्मेट्) में प्रस्तुत हो तो इसकी एक ‘पी.डी.एफ.-फाइल्’ और एक ‘एम.एस.-वर्ल्ड’ की फाइल् भी भेजी जानी चाहिए।

5. सूचना -
1. शोधपत्र सर्वथा मौलिक, शोध एवं अनुसन्धान के उच्च मानदण्डों पर प्रस्तुत होना चाहिए।
2. आंशिक अथवा पूर्णरूपेण अन्यत्र प्रकाशित, प्रयुक्त शोधपत्र नहीं भेजें।
3. साक्ष्य हेतु प्रस्तुत उद्धरणों को (ग्रन्थ-नाम, पृष्ठ-संख्या, संस्करण, प्रकाशक आदि) बहुत सावधानी-पूर्वक जांच लें और आश्वस्त होने पर ही उनका सन्दर्भ दें।
4. ध्यान दें –
o क. सम्पादकों के पहले परामर्श के बाद भी सन्दर्भों के अशुद्ध एवं भ्रान्त होने की दशा में,
o ख. दूसरे परामर्श के बाद भी निर्देशों का पालन किए बग़ैर पुन: भेजे गए, शोधपत्र स्वत: अप्रकाश्य समझे जाएंगे।
5. लेखकों के विचारों, अनुभवों तथा दृष्टिकोण से इस संस्थान, ‘जनकृति’, इसके परामर्श-दातृ-मण्डल तथा सम्पादक-मण्डल का सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Friday 13 July 2018

बूँद-बूँद सागर

“ बूँद–बूँद सागर” साहित्यकारा नीरू मोहन 'वागीश्वरी' का प्रथम हाइकु-संग्रह है। इसमें उनके ८०० से अधिक हाइकु संगृहीत हैं । उनकी रचनाओं का फॉर्म और कंटेंट, दोनों ही पूरी तरह हाइकु कलेवर के अनुरूप हैं । मेरा मानना है कि हाइकु लिखना तलवार की धार पर चलने जैसा है , जरा सी चूक हुई तो सब खत्म । यह न तो सरल है और न साहित्य का कोई शॉर्टकट ...यह 5-7-5 का कोई खेल नहीं है ....दोहा और शेर की दो पंक्तिया अपने में बहुत कुछ समेटे रहते हैं , हाइकु तो और भी लघुकाय है अत: भाव और भाषा का संयम इसकी प्रथम और अंतिम अनिवार्यता है ..5-7-5 को आधार मान कर लाखों हाइकु लिखे गए होंगे लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि उनमें से कितने हाइकु पढ़ने वालो को संवेदित करते हैं ।

मेरी नज़र में अभी तक डॉ कुंअर बेचैन , ज्योत्स्ना प्रदीप , हरकीरत हीर , कमल कपूर , भावना कुंअर और भी 2-3 नाम हैं जिनके द्वारा रचित हाइकु पाठकों के दिल की गहराईयों तक पहुँचते हैं ..अभी फरीदाबाद के डॉ महेंद्र शर्मा ‘मधुकर ‘ ने तेज़ी से राष्ट्रीय स्तर पर हाइकु लेखन में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज़ कराई है और वे हाइकु विधा में अनेक रचनाकारों के लिए प्रेरणा-स्रोत की भूमिका का सफल निर्वहन कर रहे हैं इसी श्रेणी में साहित्यकारा नीरू मोहन 'वागीश्वरी' जी भी बहुत लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं । वह मनोभावों को अपने लेखन में हीरे की  तरह तराशती हैं । यह अभी तक का प्रथम ऐसा संग्रह है जिसमें काव्य लेखन में प्रयुक्त कठिन शब्दों के अर्थों को भी शामिल किया गया है जो अपने आप में अनुपम है और रचनाकार की रचनाधर्मिता को प्रदर्शित करता है ।

नीरू मोहन का प्रथम हाइकु संग्रह ‘बूँद-बूँद सागर ‘ नदी के शीतल जल और सागर की गहराई के जैसा है । उनके समस्त हाइकु उनके ह्रदय की विशालता का परिचय देते हैं । अपने लेखन में भावपूर्ण अभिव्यक्ति और ओजस्वी गुणों के कारण साहित्यकारा नीरू मोहन जी को उनके पाठकों, शुभचिंतकों और अनेक साहित्यिक मंचों ने उन्हें 'वागीश्वरी' नाम से आलंकृत किया जिसका अर्थ है वाणी की देवी 'माँ शारदा' । उनके लेखन से यह सिद्ध भी हो जाता है कि वह साक्षात् वीणापाणी हैं । उनका लेखन सच्चाई को दर्शाता हुआ समाज का आईना प्रस्तुत करता है  । मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि ये संग्रह साहित्यकारा नीरू मोहन 'वागीश्वरी' की साहित्यिक यात्रा का एक ऐसा पड़ाव है जो उनके भावी सफ़र को एक नए मुकाम तक ले जाएगा । मुझे पूरा यकीन है कि आने वाले समय में साहित्यकारा नीरू मोहन 'वागीश्वरी' हाइकु को और अधिक ऊँचाई देंगी ।

               शुभकामनाओं सहित

पवन जैन

संस्थापक एवं संपादक ‘आगमन’

Saturday 7 July 2018

विद्यार्थियों में गिरते जीवन मूल्य

लेख

विद्यार्थियों में गिरते जीवन मूल्य

कहते हैं जो विद्यार्थी शिक्षक का सम्मान नहीं करते उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होता यह बात अब आई गई सी लगती है । आज विद्यार्थियों में गिरते मूल्यों का एक मुख्य कारण उनके स्वयं के अभिभावक है । ऐसा क्यों …?

प्रताड़ित आज विद्यार्थी नहीं समस्त शिक्षक हैं जो देश का भविष्य निर्माण करते हैं इस विषय पर लिखने के लिए मुझे मेरे विचारों और कलम ने मजबूर कर दिया है । यह बहुत ही संवेदनशील विषय है क्योंकि अक्सर हम विद्यार्थियों की प्रताड़ना की बात करते हैं कभी हमने उन शिक्षकों के बारे में नहीं सोचा जो उन्हें ज्ञान का अथाह सागर प्रदान करते हैं कि क्या शिक्षक के विषय में जो बात सामने आई है क्या वह सही है या विद्यार्थी स्वयं के बचाव हेतु भूमिका बना रहा है । आज ऐसी स्थिति आ गई है कि शिक्षक सिर्फ़ नौकरी करते हैं विद्यादान नहीं ; क्योंकि बच्चों में निम्नस्तर पर मूल्यों का ह्वास होता जा रहा है । संस्कारों का तो दूर-दूर तक कोई लेना-देना ही नहीं इस स्थिति के जिम्मेदार स्वयं बच्चों के माता-पिता हैं क्योंकि आज प्रत्येक घर में एक या दो बच्चे हैं और वह घर के दुलारे हैं जिस कारण माता-पिता उनकी हर गलती पर पर्दा डालते हैं आज मूल्यह्वास के कारण बच्चों का नजरिया भी शिक्षकों और शिक्षा के प्रति बदलता जा रहा है अध्यापक उनकी नज़र में कोई मायने नहीं रखते क्योंकि सरकार ने ही ऐसा सिस्टम बना दिया है कि बच्चों को कुछ न कहा जाए । उन्हें न ही मानसिक और न ही शारीरिक प्रताड़ना दी जाए । सरकार के इस फैसले की मैं सराहना करती हूँ मगर इससे बच्चों में भी एक ऐसे बीज का रोपण हुआ है जिसके कारण वह अपनी गलती पर पर्दा डाल देते है और शिक्षकों को दोषी करार दे देतेे हैं और यहाँ तक कि माता-पिता भी बच्चों के इस तरह के व्यवहार और कार्य में अपनी सहमति जताकर बच्चों को एक ऐसी राह दे देते हैं जो उस समय तो उन्हें सही लगती है मगर उन्हें यह अनुमान नहीं हो पाता कि भावी जीवन के लिए वह अपने ही बच्चे को अंधे कुएँ में डाल रहे हैं , जिसमे गिरकर राह पाना असंभव है । बच्चों के प्रति किसी भी प्रकार के दंड के साथ कोई भी शिक्षक सहमत नहीं होगा और न ही हो सकता है क्योंकि एक गुरू अपने शिष्यों के प्रति माता- पिता जैसा भाव रखता है । घर में भी बच्चों की गलती पर अभिभावक बच्चों को डांटते और कभी-कभी मार भी देते होंगे तो जब एक शिक्षक बच्चों के सुधार हेतु कोई सकारात्मक कदम उठाता है तो उस पर प्रतिक्रिया क्यों होती है । आज का विद्यार्थी गुरू का सम्मान नहीं करता क्योंकि उसके माता-पिता गुरूओं का सम्मान नहीं करते । 

यथार्थ में अब स्थिति ऐसी हो गई है कि शिक्षा देना सेवा का कार्य न रह कर नौकरी तक ही सीमित हो गया है । जहाँ विद्यार्थी का कार्य पढ़ने का और अध्यापक का कार्य पढ़ाने का रह गया है । यही संबंध दर्शाता है कि आदर और आदर्श कहीं धूमिल हो गया है ।


आज बच्चों में नैतिक चरित्र का ह्वास इसी कारण हो रहा है क्योंकि उनका उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करना नहीं 12वीं कक्षा पास करना है शिक्षा ग्रहण करना और फेल होकर बिना ज्ञान प्राप्त किए आगे बढ़ना ही यह चिन्हित कर रहा है कि बच्चों में किसी के प्रति आदर सत्कार नहीं है न ही शिक्षा और न ही शिक्षक । स्कूलों में विद्यार्थी शिक्षक को  ज्ञानदीप दीपक नहीं एक खिलौना समझते हैं जो कि उनके इशारों पर चलता है जो अध्यापक उन्हें पसंद नहीं , जो उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है , जो उनके माता-पिता को बातचीत करने के लिए और उनके विषय में जानकारी देने के लिए स्कूल में बुलाता है उसके खिलाफ बच्चे माता-पिता को स्कूल पहुंचने से पहले ही भड़का देता है  परिणाम स्वरुप शिक्षक की शामत आ जाती है और समाधान कुछ नहीं निकलता । जो अध्यापक विद्यार्थी को सकारात्मक रूप से आगे बढ़ाने की कोशिश करता है वही विद्यार्थी उसकी अवहेलना कर उसको शर्मिंदा करवाता है । आज अध्यापक और विद्यार्थी का संबंध एकलव्य और द्रोणाचार्य वाला नहीं रहा । बच्चा अपने खिलाफ एक शब्द नहीं सुनता अध्यापक को अपमानित करता है और यही कारण है कि आजकल के बच्चों में धैर्य और संयम नहीं है संस्कारों और ज्ञान के अभाव के कारण ही आजकल की संताने बिगड़ैल संतानों की श्रेणी में रखी जाती है देश में जितने भी अत्याचार पनप रहे हैं जिस में छोटी-छोटी बच्चियों के साथ गलत व्यवहार हो रहा है , शिक्षक को शिक्षक नहीं गुलाम समझा जाता है , बड़े-बूड़ों का अपमान होता है, बच्चों में सोचने समझने की शक्ति नहीं है ,सोच संकीर्ण होती जा रही है , माताओं बहनों का आदर नहीं है यह इसलिए है क्योंकि उन्हें (बच्चों ) ज्ञान प्राप्त हो ही नहीं रहा, अच्छे संस्कारों का आभाव और अपनी हरकतों के कारण शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं इसमें चाहे लड़का है या लड़की दोनों में झूठ बोलने, बातों को घुमा फिरा कर बदलने की आदत आती जा रही है ।


मौजूदा दौर की मांग है कि बच्चों के अभिभावकों को जानकारी देकर उन्हें बच्चों के कार्यों से अवगत कराया जाए । आज सभी विद्यालयों में यही नियम और प्रक्रिया अपनाई जाती है । दंड चाहे किसी भी प्रकार का हो मानसिक या शारीरिक; प्रतिबंधित है मगर एक गंभीर समस्या यह उत्पन्न हो गई है कि अगर बच्चों के माता-पिता को शिक्षक बातचीत के लिए बुलाता है तो स्कूल पहुँचने से पहले ही बच्चे माता-पिता को कुछ भी शिक्षक के विषय में बता कर अपनी गलती पर पर्दा डाल देता है और माता पिता बच्चों की बात सुनकर एक तरफा निर्णय लेकर स्वयं भी शिक्षक को गलत ठहराते हैं एक बार भी अध्यापक से बच्चे की गलती पूछने की कोशिश नहीं करते हैं बच्चों में गिरते मूल्यों का यह एक बहुत ही बड़ा कारण है जिसका परिणाम हमारी भावी पीढ़ी संकीर्ण सोच वाली बनती जा रही है । मैं इसे मानसिक रुग्ण अवस्था नाम दूँगी । अगर मैं दो दशक पहले की बात कहूँ तो उस समय ऐसे हालात नहीं थे तब कक्षा में शिक्षक की छड़ी और गाल पर चपत को पिटाई नहीं माना जाता था वह अनुशासन का हिस्सा हुआ करता था जिसमें शिक्षक की अपने विद्यार्थी के प्रति सद्भावना ही रहती थी खास बात यह है कि कोई बच्चा अपनी पिटाई की बात भी घर पर नहीं बताता था क्योंकि उसे भय रहता था कि ऐसा सुनकर घर पर भी अभिभावक उन्हें पीटेंगे उस समय कोई अभिभावक सोच भी नहीं सकता था कि शिक्षक ने उनके बच्चों को किसी दुर्भावना से पीटा होगा मगर आजकल तो बच्चों को प्यार से समझाने पर भी अगले दिन अभिभावक पूरा बोरिया बिस्तरा उठा कर स्कूल प्रशासन और शिक्षक के ऊपर चढ़े होते हैं । उस समय की बात कहूँ तो बिगड़ैल बच्चों के अभिभावक कई बार तो खुद स्कूल जाकर शिक्षकों से कहते थे कि उनके बच्चे के साथ सख्ती बरती जाए आज माहौल बदल गया है बच्चों के यह बताते ही कि शिक्षक ने उसे गाल पर या कमर पर मारा है या फिर कुछ शब्दों के माध्यम से कुछ कह दिया है अभिभावक बिना समय गँवाए सीधे थाने जाकर एफ आई आर दर्ज करवा देते हैं इसके बाद उत्तेजित लोगों का हुजूम स्कूल में घुसकर तोड़फोड़ करता है और प्रधानाचार्य जी और शिक्षक की जान मुश्किल में पड़ जाती है । इस माहौल में भला कोई शिक्षक बच्चों को क्यों पिटेगा और क्यों मानसिक प्रताड़ना देगा । बहरहाल, इसका प्रभाव शिक्षण संस्थानों के अनुशासन, बच्चों के व्यक्तिगत व्यवहार और शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों पर दिख रहा है । भयभीत शिक्षक सिर्फ़ नौकरी करता है विद्यादान नहीं । देंखे तो अब न पहले जैसे विद्यार्थी हैं न अभिभावक जो गुरु को भगवान समझते थे और विद्यालय को मंदिर …??


लेखिका

नीरू मोहन 'वागीश्वरी'

Friday 6 July 2018

मेरी मौसी

मेरी मौसी माँ के जैसी, प्यार मुझे माँ जैसा देतीं ।
जब भी घर मेरे है आतीं, मेरे मन की चीज़ वो लातीं ।
प्यार से मुझको गले लगातीं, खेल-खिलौने सभी खिलातीँ ।
कहकर मुझको लाल बुलातीं, डांट से मम्मी की हैं बचातीं ।
दूध का कप मम्मी जब लाती, मौसी मुझको पास बुलातीं ।
दूध पिला पूरा मुझको वह, गोदी में अपनी हैं बैठातीं ।
मौसी मेरी सबसे प्यारी, राजदुलारी सबसे न्यारी ।
माँ के जैसा लाड हैं करतीं, बहन के जैसा हठ भी करतीं ।
कभी सख़्त बन जाती पल में, कभी मोम-सा मन धर लेतीं ।
मौसी मेरी माँ के जैसा, प्यार मुझे हर पल हैं देतीं ।