Thursday 18 May 2017

नदी ‘ इसे बहने दो ‘

*निर्झरिणी स्वछंद दुग्ध धारा है,
कभी ठंडी कभी शीतल जयमाला है।
कलकल छलछल बहती,
प्यास सभी की बुझाती जा रही है।
मगर पहुंचकर तट पर,
मैली होती जा रही है।

*बैठी एक दिन कूल पर,
देख रही थी तटिनी का यह हाल।
कौन सुनेगा तेरी आह,
तरंगिणी धीरे बहो, धीरे बहो।
जाना है अभी तुझे बहुत दूर,
बहुत दूर उस पार।

*सभ्यताएँ जनमी,
संस्कृतियाँ परवान चढ़ी।
तेरे आंचल के साये में
सारी दुनिया पली बढ़ी।
आज किसे है ये एहसास,
तरंगिणी धीरे बहो।

*कैसे चुकाएगा तेरा एहसान,
स्वार्थी निर्मोही इंसान।
कैसे समझाएँ
इस निर्बोध मानव को
मैला करके तुझे,
कुछ न प्राप्त कर पाएगा ये भंगुर।

*आज ये आधुनिकता के नशे में
हो गया है चूर-चूर,
नहीं सुन पाएगा तेरी आह,
तटिनी धीरे बहो, धीरे बहो।
संभल जा, थम जा शीतल धार देती है यह।
नदी है, नदी है, नदी है यह|

*वर्षों का इतिहास समेटे
कथा कह रही है यह
आँसू पीते ,मलबा ढोते ,
मगर बह रही है यह।
अविरल है, निर्मल है
बहने दे, बहने दे इसे,

*मत कर इसे तू गंदा,
बस इसे अब तू —- बहने दे,
बहने दे, बहने दे।

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