****समय पंख लगाकर कैसे उड़ गया पता ही नहीं चला | माँ का कमरे से आवाज लगाना दौड़कर माँ के नजदीक पहुँच जाना अभी भी याद है | वह समय ही कुछ और था | सुबह तड़के उठ जाना, स्कूल के लिए तैयार होना, अपने आप जूते और मौजे पहनना, मम्मी का चोटी बांधने के लिए आवाज लगाना और माँ का खूब कसकर चोटी बांधना मोड़कर ऊपर की तरफ फूल बना देना अभी भी याद है | मेरी माँ चोटी ऐसी बनाती थीं कि सिर कासर्दियों की छुट्टियों का कुछ मजा ही अलग थासर्दियों की छुट्टियों का कुछ मजा ही अलग था कोई भी बाल नहीं उड़ता नजर आता था अगले दिन भी चोटी सुबह तरोताजा नजर आती थी |
****दिल्ली में ही मेरा बचपन बीता |दिल्ली में ही मैं पली बड़ी | नानी दादी से पता चला था कि हमारे पूर्वज राजस्थान से संबंध रखते थे और वह मिट्टी के बर्तन बनाते थे काम में बहुत सधे हुए थे और कला से उनका बहुत गहरा संबंध था | अगर यादों के पन्ने पलटती हूँ तो पाती हूँ कि वह समय ही कुछ और था मुझे अभी भी वह दिन याद है जब हम अपनी माँ से दस पैसे और पाँच पैसे लेने पर भी बहुत खुश हुआ करते थे और-तो-और पच्चीस पैसे की दो आइसक्रीम भी मजे से खा लेते थे |
****उस समय की इमली, कटारे, बेर, शकरकंदी, इमली के चिएँ, सुपारी अभी भी मुँह में पानी ला देते हैं |वह मजा और चीजें आजकल कहाँ |बच्चों को पिज्जा बर्गर के अलावा कुछ नहीं सूझता |सन् २०१७ मेरी माता जी को गुजरे आज १७ साल बीत चुके हैं मगर उनका एहसास ,उनकी यादें, उनका प्यार, हर बात के लिए टोकना, अच्छी बातें और संस्कार जो हमने अपनी माँ से पाए सभी यादों की सुनहरी कड़ी में अभी भी जीवित हैं |
****जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आए | परिवार में छह सदस्य, हर स्थिति का सामना हम सभी ने बहुत धैर्य और साहस से किया| एक समय वह था जब बच्चा तंगहाली में भी एक जोड़ी जूते कपड़ों में पूरा साल निकाल देता था मगर आज बच्चों को सभी सुख सुविधाएँ चाहिए उन्हें इससे कोई सरोताज नहीं कि उनके माँ-बाप इस स्थिति में है या नहीं |आजकल के बच्चों को सिर्फ उनकी फरमाईशों के पूरा होने से मतलब है|
****मुझे अपने समय का रविवार और बुधवार भुलाए नहीं भूलता |उस समय दूरदर्शन और मेट्रो नेटवर्क ही हुआ करते था | दूरदर्शन पर हर रविवार को फिल्म आती जिसका इंतजार पूरे हफ्ते रहता था | बुधवार को 8:00 बजे चित्रहार और शनिवार को फूल खिले गुलशन गुलशन प्रोग्राम का सभी को बेचैनी से इंतजार रहता था | क्या दिन थे ? वह भी कि रविवार की प्रात: सब तड़के उठकर घरों की सफाई में तल्लीन हो जाते और टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों को देखने के लिए 8:00 बजे से पहले-पहले नाश्ते-पानी सभी से फारिग हो जाते और फिर पूरा परिवार मिलकर एक साथ एक ही हॉल में सभी कार्यक्रमों का लुफ्त उठाते |
****फेरीवालों के गलियों में चक्कर और हर फेरीवाले को रोककर समान लेकर खाना मजा ही कुछ और था |जिस बच्चे के पास एक रुपया होता बस फिर मत पूछो वह क्या-क्या खा सकता था 25 पैसे के 10 बिस्कुट 10 पैसे की 10 नलियाँ जिन्हें फुकनियाँ भी कहते थे आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि ₹1 में कितनी सारी चीजें हम उस समय खाया करते थे त्यौहार पर रिश्तेदारों से एक और दो के नोट का मिलना और सब नोटों को इकट्ठा करना सब से पूछना कि उन्हें किसने कितने पैसे या रुपए दिए वो गुज़रा वक्त और मजा अब कहाँ |आज अगर स्मृतियों के पन्ने पलटते हैं तो आज की भागमभाग की जिंदगी से चिढ़ मचती है | उस समय कितना सुकून |
****त्योहारों का अपना ही मजा था परिवार की एकजुटता प्यार और अपनापन मिलकर बैठना सब बहुत यादगार है| त्योहारों से पहले ही त्योहारों के आने का मज़ा ही कुछ और होता था | छुट्टियाँ चाहे कोई भी हो दशहरा, क्रिसमस जिसे बड़े दिन की छुट्टियाँ कहते थे, गरमियों और सर्दियों की छुट्टियाँ | नानी के घर जाने का जुनून इतना होता कि छुट्टियों का स्कूल का काम दो दिन में ही खत्म कर लेते थे सर्दियों की छुट्टियों का कुछ मजा ही अलग होता था | घरों में अंगीठी सुलगती थी | कोयले की महक और उसका धूँआ सबकी आँखों में पानी ला देता था यह दृश्य देखने में बहुत ही मजेदार हुआ करता था | बिना रोए सबकी आँखों से आँसू बहते थे| उस समय सर्दियों में ज्यादातर अँगीठी पर ही खाना पकाते थे और अंगीठी के चारों तरफ बैठकर ही सब खाना खाते थे |
****नए साल के कार्यक्रम टीवी पर देखने के लिए इतनी तैयारी करते थे | मूंगफली ,रेवड़ी और बहुत सी खाने की चीजें होती थी | घरों में पकवान बनते थे बहन बेटियों के बुलाकर नए साल के प्रोग्राम का टीवी पर मजा लिया जाता था |नया साल भी किसी त्योहार से कम नहीं होता था| आज कल तो सब फोन से ही एक-दूसरे को मैसेज भेज देते हैं | उस समय किसी भी त्यौहार या नए साल का शुभ समाचार संदेश ग्रीटिंग कार्ड के माध्यम से भेजा जाता था और किसी का हाल-चाल पूछना हो तो चिट्ठी-पत्री के द्वारा उसका हाल चाल पूछ लिया जाता था मगर आज यह सारी चीजें देखने को नहीं मिलती उस समय सब दूर रहकर भी बहुत नजदीक थे परंतु आज सब नजदीक रहकर भी बहुत दूर है | आज शुभ संदेश फोन के माध्यम से भेज दिए जाते हैं | फोन के माध्यम से ही हाल-चाल पूछ लिया जाता है | चाहे कुछ भी कहो जो मजा चिट्ठी पढ़ने में था वह फोन पर बात करने में नहीं |
****पहले घरों ,हवेलियों में लोहे के जाल बने होते थे जाल पर साथ-साथ खाना खाना | पहले संयुक्त परिवार होते थे और एक ही हवेली में कई पीढ़ियों के परिवार एक साथ मिलजुल कर रहते थे परिवारों की एकजुटता को देखकर कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता था कि कोई अलग है सब खाना जाल पर बैठकर खाते एक ही साथ छत्तीस भोज का मज़ा लिया जाता था| खाना खाकर छत पर टहलने जाना | उस समय वातानुकूलित यंत्र नहीं होते थे इसलिए स्वच्छ शीतल ठंडी वात का मजाक छत पर ही लिया जाता था | दोपहर शाम ढलते ही छतों को ठंडा करते ,पानी डालते ,और पानी को सुखाने के लिए पंक्ति भी गाया करते थे | गिली-गिली चली जा सूखी सूखी आ जा जल्दी से हमारी छत को सुखा जा | जमीन को जल्दी सूखाने के लिए यह सब किया करते थे |
****छत के सूखते ही अपना-अपना बिस्तर बिछाना, लेट कर आसमान को देखना ,तारों को गिनना, बादलों और चाँद को चलते देखना सब कितना अनोखा था कल्पना की उड़ान बहुत दूर तक जाती थी ? क्या जमाना था ?आज भी यह सब बातें लिखते हुए मुझे हँसी आ रही है और जहन में वह सभी तस्वीरें फिर से ताजा होती जा रही हैं | वक्त कितनी जल्दी गुजर जाता है कभी हम खुद बच्चे हुआ करते थे और आज बच्चों के पालक हैं उनको देख कर अपना बचपन फिर से लौट आता है मगर आज जब देखते हैं कि जो हमारे समय में बात थी वह आज नहीं है |ना ही शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध वातावरण कुछ भी तो शुद्ध नहीं है |आज की भागमभाग की जिंदगी ने हमारे बच्चो को भी एक मशीन बना दिया है | मुझे अभी भी याद है कि हम स्कूल जाने के लिए कभी भी नहीं रोए| उस समय स्कूल जाने का भी एक अलग ही मजा था | मगर आजकल के बच्चे स्कूल जाने से कतराते हैं | स्कूल का नाम लेते ही उनको बुखार चढ़ जाता है |पढ़ने को कहो तो नींद आने लगती है | क्या कहे वक्त की लहर है | आज हमें अपना समय याद करके अच्छा लग रहा है कल हमारे बच्चे अपना समय याद करके खुश होंगे | यही जीवन चक्र है जिसका पहिया पीछे नहीं आगे जाता है यही पहिया कल आज और कल में अंतर बताता है | ये मेरी स्मृतियों के कुछ पन्ने है जो आपके साथ साँझा किए हैं और जिनको लिखने के लिए कलम खुद-ब-खुद लेखनी बनकर कागज पर उतर आई है |
लेखिका -नीरू मोहन
विधा – संस्मरण
स्मृतियों के पन्ने