यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है ।
घर में माता-पिता दो पुत्र और पाँच पुत्रियाँ माँ-बाप सभी का पालन पोषण समान रूप से करते हैं । लड़के और लड़कियों को भरपूर प्यार देते हैं शिक्षित दोनों को ही करते हैं । धंधा खूब अच्छा चल रहा था । बड़ा और छोटा बेटा पिता का काम बखूबी संभालते हैं । पैसों की मानो वर्षा होने लगती है । एक दिन छोटा बेटा अचानक बीमार हो जाता है । लड़का बिस्तर पकड़ लेता है न वह चल पाता है न खा पाता है । घटिया ही एक मात्र स्थान हो जाता है जिस पर वह अपने दिन-रात काटता है । डॉक्टरें वैद्यों के इलाज़ से भी लड़का ठीक होने में नहीं आता दिन-ब-दिन उसकी हालत बिगड़ती चली जाती है । काम धंधे को भी मानो नजर-सी लग जाती है । बड़े बेटे की शादी हो जाती है । वह अपना अलग परिवार बसा लेता है । परिवार में लड़कियाँ , मां -बाप और बीमार छोटा भाई । स्थिती इतनी गंभीर थी कि उम्र के बढ़ते पिता की भी हालत ऐसी नहीं थी कि वह दुकान संभाल सकेँ ।
एक बेटी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर रही है जिस की कमाई से घर चल रहा है । दूसरी घर में ही अपना स्वयं का कार्य शुरु कर देती है भाई की हालत ज्यादा ख़राब होती चली जाती है । इलाज भी चल रहा है मगर कोई सुधार नहीं है । बिस्तर पर पड़े-पड़े बारह तेरहा साल बीत जाते हैं मगर इलाज कामयाब नहीं हो पाता और न ही बीमारी का पता चल पाता है । गर्मियों के दिन, अचानक रात को बीमार भाई का स्वर्गवास हो जाता है । विलाप करते माँ-बाप के दुख का ठिकाना नहीं है । बहने जिनकी अभी शादी भी नहीं हुई है । क्या होगा ? रह रहकर यही विचार सबके मन को कचोट रहा था दूसरी ओर कोई कह रहा था अच्छा है बेचारे को शरीर के कष्ट से मुक्ति मिली । मगर उस परिवार का क्या जिसका जवान बेटा उनकी आँखों के सामने मृत्यु को प्राप्त हुआ हो । उन बहनों का क्या जो हर साल रक्षाबंधन पर भाई की कलाई को खोजेंगी । कहते हैं --- परिवार का सदस्य अगर आँखों के सामने हैं चाहे वह अस्वस्थ ही क्यों न हो , वह दिखता तो है । बेटे की मृत्यु के बाद माँ की भी आँखों की रोशनी धीरे-धीरे जाती रहती है । माँ को दिखाई देना बंद हो जाता है पिता चलने के लिए लकड़ी का सहारा ले लेते हैं ।
वहीं दूसरी और बड़ा बेटा अपने में ही मस्त मगन है उसे माँ-बाप और बहनों की कोई चिंता नहीं है । वह अपने ही परिवार में खुश है । पाँच में से दो लड़कियों की शादी समय रहते ही हो जाती है । अब माँ-बाप का एकमात्र सहारा तीनों लड़कियाँ ही है । समय बीतता है तीनों लड़कियां मां बाप का ख्याल बच्चों जैसे रखती हैं परंतु ईश्वर की लीला भी देखिए कुछ समय पश्चात बूढ़ी माँ की भी मृत्यु हो जाती है । घर सिमटता जाता है लड़कियाँ अब अपनी शादी के या अपने जीवन के बारे में नहीं सोचती । अब उनके लिए अपने पिता का सहारा बनना ही एकमात्र लक्ष्य है । आज तक उन्होंने शादी नहीं की एक लड़की छप्पन साल की दूसरी अड़तालिस साल और तीसरी पैंतालिस साल की उम्र पार कर गई हैं । अपने पिता की देखभाल करती हैं अपने स्वयं के आवास में रहती हैं । सुख-समृद्धि की कमी अभी भी नहीं है । मगर ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में शायद उन तीनों के लिए कोई नहीं बना जो उनकी अधूरी जिंदगी को पूरा करें । उनको माँ ,भाभी ,चाची ,मामी ,ताई बनाए । पिता को सहारा देने के अलावा उनके जीवन का कोई और लक्ष्य नहीं है । शायद इसी को कहते हैं ममता । जो एक स्त्री में होती है । स्त्री अपनी ममता, मातृत्व, प्यार किसी भी रूप में प्रदान कर सकती है । जरूरी नहीं कि एक लड़की माँ बनने पर ही ममता की मूरत, प्यार की देवी, करुणामई, ममतामई , दयालु कही जाए । एक स्त्री किसी भी रूप में हो वह परिपूर्ण है । त्याग करुणा, ममता, दया की मूरत है बेटियाँ माँ ही हैं ।
No comments:
Post a Comment