Tuesday, 13 February 2018

दर्पण

** दर्पण **

तीसरी दुनिया के देश …उनकी महिलाएँ
प्रकृति पर हैं पूर्णतया निर्भर ।
लेती प्रकृति से जीवन आधार
रोज़ बनती शोषण का शिकार ।
प्रकृति विनाश कहलाता उनका विनाश शोषण के आगे नहीं खुलती उनकी ज़वान ।
संथाल समाज में प्रकृति के साथ
लिंग-वर्ग होता रिश्ते का आधार ।

भोजन जुटाती हैं लड़कियाँ सारी…
फल-फूल जंगल से लाने की होती उन्हीं की जिम्मेदारी ।
हर चीज़ के लिए संथाली हैं जंगल पर निर्भर ।
यही प्रकृति हिंसा दर्शाती स्त्री जाति पर होने वाली हिंसा का दर्पण ।

पुरुष जाति आराम से रहती ।
महिला कष्ट संपूर्ण जीवन सहती ।
जलावन, जड़ी-बूटी, चारा,
पत्ता, खाद या खाद्य हो सारा ।
महिला यह सभी साधन है जुटाती
पुरुष जाति सिर्फ़ हुकूमत चलाती ।

ऐसे ही होता है शोषण
चाहे प्रकृति हो या हो घर जिससे रोशन । पानी लाना है या जानवर चराना है आदिवासी महिलाओं को ही यह कार्य भार उठाना है ।
फसल बोने का या कटाई का कार्य
समस्त कार्य महिलाओं से ही करवाना है ।
शोषण का यही फसाना सदियों पुराना है । आदिवासी महिलाओं को समस्त जीवन गृहस्थ आश्रम में ही बिताना है ।
आदिवासी समाज में महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त है ।
यही सजीव चित्रण सबके समक्ष लाना है ।

शिक्षा से दूर रखा इन्हें जाता है ।
रोज़मर्रा का समस्त कार्य कराया जाता है ।
घर से बाहर का भी हर काम करवाया जाता है ।
शोषण पुरुष द्वारा हर रोज़ किया जाता है ।

कोई सब्ज़ी बेचती है ।
कोई दुकानों पर काम करती नज़र आती है ।
कोई बच्चों को पीठ पर बांधे काम पर निकल जाती है ।
फिर भी आदर-सम्मान कहीं नहीं पाती है ।

ये शोषण ही तो है…

पुरुष के काम भी स्त्रियाँ ही संभालती हैं ।
घर चलाना और संभावना दोनों ही बखूबी निभाती हैं ।
दर्पण यही सच्चाई दिखाता है ।
देखकर चेहरा और जिजीविषा इनकी
एक प्रश्न उभर कर आता है ।

क्या…क्या संघर्ष हमेशा ऐसे ही ज़ारी रहेगा ।
पितृसत्तात्मकता की प्रथा नारी की स्थिति ऐसे ही गिराएगा ।

महिला होना…आदिवासी जाति और ग्रामीण जीवन की दशा और निम्न बनाती है ।
नारी के सशक्तिकरण की बात कही जाती है। शक्ति सही शक्ति की बात कही जाती है ।
आधुनिक समाज है, जागरूकता ज़रूरी है ।
आगे आओ… अपने हक के लिए स्वयं तुम्हें ही लड़ना है।
शिक्षा प्राप्त कर आने वाले समाज का पुनर्निर्माण करना है ।

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