** बार: बार-बार देह व्यापार**
मायानगरी मुंबई की
बार गर्ल की यह कहानी है ।
कूल्हे मटकाती, देह दिखलाती
भड़कीली साड़ी के संग
अस्त-व्यस्त पल्लू है हटाती ।
लुटे हुए नोटों के ऊपर
नाच रोज़ दिखलाती है ।
पिंजरे में रहती यह बंद
असमत को लुटवाती है ।
यही कहानी रोज रात को
बार गर्ल लिख जाती है ।
कुछ पैसों की खातिर यह
ग्राहक के संग रात बिताती है ।
राधा, शीला, मीना, रानो,
लता नाम बतलाती है ।
नया मुखौटा नया नाम
रोज़ नया बताती है ।
रोज़ की यही ज़िंदगी इसकी
नासूर रोज़ दे जाती है ।
काम की खोज में पराए देश
रोज़ लुटी यह जाती है ।
मात-पिता को भ्रम यह रहता
नौकरी बेटी करती है ।
पर यह उनको कौन कहे कि
देह व्यापार वह करती है ।
लाचारी और दीन हीनता
उसको यह दिखलाती है ।
कह ना पाती सह जाती
परिवार का पेट वो पालती है ।
भीख मांगती ग्राहकों से
अपनी पहचान छुपाती है ।
रोज़ गालियों के पत्थर
छाती पर अपनी खाती है ।
कुछ मंच पर गाना गाती
कुछ सुरधार बहाती हैं ।
भोजन और विषपान कराती
भाव भंगिमा दिखाती हैं ।
कुछ पैसों की ख़ातिर करती
कुछ मज़बूरी में करती हैं ।
दोनों सूरतों में यह नारी
सबके ख़ंजर सहती है ।
छोड़ के सारे रिश्ते नाते
संग सहेली रहती है ।
रोज़ रात को बार की शोभा
बार गर्ल से सजती है ।
नहीं मन से करती सब कुछ
मजबूरी करवाती है ।
नारी की समर्पण शक्ति
यही मिसाल दर्शाती है ।
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