Monday 18 June 2018

स्नेह और दुलार खो गया (लेख)

   लेख
स्नेह और दुलार खो गया

एक बच्चे की उन्नति और विकास के लिए अभिभावकों के साथ निरंतर बच्चे की पढ़ाई और क्रियाकलापों को लेकर वार्तालाप बहुत आवश्यक है क्योंकि इससे एक बच्चे के विकास के चरणों का पता चलता है । 24 घंटों में से बच्चे 8 घंटे स्कूल में अपनी शिक्षिकाओं, सहपाठियों के साथ वक्त बिताते हैं और 2 × 8 घंटे अपने परिवार, माता-पिता, दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ ।
प्रश्न यह उठता है …कि बच्चों के जीवन पर किसका प्रभाव अधिक पड़ता है वातावरण का, स्कूल का, परिवार का या अभिभावकों का ? नि:संदेह बच्चों के जीवन पर स्कूल से ज्यादा प्रभाव वातावरण और अभिभावकों का पड़ता है अपने शिक्षकों के साथ बिताए 8 घंटों में बच्चे के भाग्य का निर्माण नहीं किया जा सकता बच्चे के भाग्य को आकार दिया जा सकता है लेकिन उसकी मजबूती का कार्य एक घर में एक परिवार में अभिभावक ही कर सकते हैं क्योंकि जो जड़ संस्कार, संस्कृति उनको परिवार से प्राप्त होते हैं वहीं उनके जीवन की दिशा प्रदान करने का कार्य करते हैं उन्हीं संस्कारों से वह आगे बढ़ते हैं। स्कूल शिक्षा देने का माध्यम है जहाँ बच्चे औपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण कर अपनी दिशा का निर्धारण करते हैं। कहते हैं…अगर बच्चों की नींव मजबूत है तो बच्चों को दिशा प्रदान करने में कोई परेशानी नहीं होती है नीव निर्माण का कार्य पारिवारिक संस्कारों से शुरू होता है मगर दुर्भाग्यवश आज की इस आभासी भाग-दौड़ की दुनिया में माता-पिता दोनों कामकाजी हैं उनके पास अपने ही बच्चों के लिए समय नहीं है आज संयुक्त परिवार नहीं रह गए हैं सभी एकल परिवारों में रहते हैं और ऐसे परिवारों में कोई भी ऐसा नहीं होता जो उन्हें संस्कार ज्ञान और आचार सिखा सके ।
पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे बच्चों की नींव से ही उन्हें संस्कारों का एक वृहद समंदर प्राप्त होता था जो उनके चारित्रिक विकास में सहायक होता था । परिवार में परिवार के बड़े दादा-दादी बच्चों को अच्छी शिक्षा संस्कार से फलीभूत करते थे माता-पिता भी साथ रहते थे और आदर सत्कार के भावों से निर्मित नैतिक चरित्र बच्चों का सुदृढ़ और सुसंस्कृत होता था मगर आज इस दौड़ भाग की जिंदगी में न तो संयुक्त परिवार हैं और न ही अभिभावकों के पास इतना समय है कि वह अपने बच्चों को सुसंस्कृत संस्कार दे सकें उनको सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है बच्चा स्कूल में जाकर क्या करता है…क्या पढ़ता है …घर पर क्या खाता है , पढ़ता भी है या नहीं इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं । आजकल के अभिभावक सोचते हैं कि वह स्कूल में फीस दे रहे हैं तो पूरा का पूरा दारोमदार स्कूल का है बच्चे की पढ़ाई , नैतिक विकास , संस्कारों का ज्ञान , बच्चों की बढ़ोतरी से लेकर बच्चों के भाग्य निर्माण तक सभी कार्य स्कूल का है क्योंकि वह स्कूल को फीस देते हैं क्या यह सही है ? व्यंग्य ……आजकल के बच्चे यूँ ही पढ़ जाते हैं… मानो तो सब कुछ न मानो तो कुछ भी नहीं ।
बच्चों का पालन पोषण करना एक नए बर्तन बनाने के समान है और हर माता-पिता एक कुम्हार है जो अपने बच्चों को आकार देता है उनको भीतर और बाहर दोनों ओर से रचता है जहाँ भी असावधानी हुई वही बच्चा दिशाहीन हो जाता है अर्थात माता-पिता एक कुम्हार की भांति कार्य करते हैं जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के अंदर और बाहर दोनों तरफ से मिट्टी धकेल कर उसे एक अच्छा आकार प्रदान करता है उसी प्रकार माता-पिता बच्चों के जीवन को बनाने में वही कार्य करते हैं सीधा-साधा उत्तर है कि आजकल के माता-पिता के पास न ही समय है, न ही प्यार और न ही धैर्य जो एक कुम्हार की भांति अपने बच्चों को घड़ सके । बच्चों की बढ़ोतरी में सबसे ज्यादा महत्व माता-पिता का प्यार, स्नेह और दुलार ही रखता है । जीवन जीने की आधी शिक्षा तो बच्चा इन्हीं चीजों से सीख जाता है आजकल के माता पिता दोनों ही कामकाजी होने के कारण अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते और पूरी तरह शिक्षकों पर निर्भर हो जाते हैं अगर बच्चा खाना नहीं खाता , गृह कार्य नहीं करता , घर में किसी से अच्छी तरह से वार्तालाप नहीं करता , यहाँ तक की सुबह उठकर दाँत नहीं मांझता, नहाता नहीं है नाश्ता नहीं करता यह सब अध्यापक का ही दोष है आजकल के अभिभावकों का यही कहना है …यहां मैं आप सबसे एक प्रश्न पूछती हूँ क्या सिर्फ बच्चों को जन्म देना ही माता-पिता का कार्य है उनका नैतिक विकास और चारित्रिक विकास उनके लिए कोई मायने नहीं रखता । क्या माता-पिता का कोई कर्तव्य नहीं…बच्चे को संस्कार माता-पिता ही दें सकते हैं यह खरीदे नहीं जाते और न ही इनको सिखाने के लिए किसी को किसी प्रकार की फीस दी जाती है । संस्कारों का ज्ञान बच्चा घर परिवार में अपनों के साथ रहकर ग्रहण करता है यही समझना आवश्यक है ।

लेखिका
नीरू मोहन 'वागीश्वरी'

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