क्या मैं हूँ लाचार ?
नसीब का है खेल
महलों में जन्मी तब भी लाचार
सड़कों पर जन्मी तब भी लाचार
क्यों ? नसीब में नारी के लाचारी सिरोताज ।।
कहते हैं लोग मैं हूँ सिर्फ लाचार
आज बताती मैं अपनी लाचारी
मेरी ही नहीं हम सब की कहानी
बहू बनकर ताने सहती
बेटी बन बेड़ियों में रहती
माँ बन दुख-दर्द सारे झेलती
पत्नी बन ठोकरों में रहती
हाँ…मैं हूँ लाचार ------
खुद भूखे रहकर
परिवार का पेट भरूँ
खुद के अरमानों की शैय्या पर…
रोज़ मारूँ
स्वयं को डाल विपदा में…
दोषारोपण सहा करूँ
कोई नहीं मेरा इस जग में
सारे कष्ट में स्वयं सहूँ
फिर भी लाचारी क्यों सहूँ
जन्म लिया नारी का मैंने
क्या यह मेरा अभिशाप है
नर को जन्म दिया मैंने …क्या यही मेरा दुष्पाप है ??
जन्म दिया जिस नर को मैंने
उस नर ने ही मुझको नष्ट किया
जन्म लेकर मेरी ही कोख से
अपमानित मुझे दर-दर किया
जिसने नर को जन्म दिया ।।।
फिर भी लाचारी क्यों सहूँ
एक और घर संभालती हूँ
दूसरी और काम पर जाती हूँ
फिर भी पति की आँखों में
शंका को ही बस पाती हूँ
लोगों की बुरी नजर सहती हूँ
अपने तन को रोज़ बचाती हूँ
मैला आँचल न हो जाए…बस
रोज़ यही दुआ मनाती हूँ
रोज़ सूर्य उदय होता है
रोज रात भी होती है
पर मैं वो हूँ जिसके जीवन में
रातऔर सुबह नहीं होती है
बच्चों के लिए मैं जीती हूँ
पतिव्रता बन जीवन सीती हूँ
फिर भी अंतिम क्षण में अपने को
अकेला ही पाती हूँ
जो जीवनपर्यंत दूसरों के लिए जीती हूं।।
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