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कविता का शीर्षक ' लकीर '
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पशु और पक्षी से मिली एक सीख
लकीर
उन्मुक्त गगन में उड़ते पंछी, न जाने बटती सीमा को ।
तभी तो उड़ते फिरते हैं, खुले गगन में यूं बेखौफ ।
नहीं कोई भी सीमा इनकी, खुले गगन में उड़ते हैं ।
पल में पाक तो पल में भारत, नहीं बांधती रेखा इनको ।
कुक्कुर, बिलैय, सर्प, पीपीलिका नहीं बांधती इनको भी ।
न ही तो किसी देश की सीमा, न ही मिट्टी की गंध भी ।
दो देशों के बीच की खाई, पनपी नफ़रत बिछड़े भाई ।
इंसानों में बढ़ती हिंसा, सीमा पर लगता है वीज़ा ।
होतें गर हिन्दू या मुस्लिम, गर होतें मानव जैसे ।
भेदभाव का बीज गर, बोया होता मन में तो ।
लेना होता वीज़ा भी, हर देश में जाने का इनको।
मानव जैसा मन रखते गर, बांट ये देते नभ, जल को ।
दीवारें न लांघ यह पाते, वीज़ा भी लगता इनको ।
कितना अजब ये दृश्य होता, जंतु गर मानव–सा होता ।
सोचो गर ऐसा हो जाए, लग जाए पहरा हर ओर ।
पंछी पशु अरि बन जाएं, धरती हो या नीला व्योम ।
चारों तरफ अफरा–तफरी, नभ भी नहीं उन्मुक्त ही हो ।
रेखा बांट दे नभ को भी, जाल में हो जब अंबर भी ।
सोच के भी ये परे सोच है, भयावह कितना मंजर है ।
सीमाओं में बंट गया है इंसान, नस–नस में विष सम रक्त है ।
करना है ऐसा कुछ हमको, कोई लकीर न खींच सके ।
न ही मन में न ही तन पे, न ही देश की सीमा पे ।
रोष मिटाना होगा हमको, होश में आना होगा हमको ।
प्रेमभाव, सद्भाव से रहना, सीखना होगा खग से हमको ।
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