हिंदी कविता की लोकधर्मिता परंपरा शोध आलेख
लोक साहित्य का अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें लोक समाहित हों और जिसकी रचना लोग करता है अर्थात लोक पर आधारित साहित्य, लोक द्वारा रचित साहित्य ही लोक साहित्य कहलाता है और जो लोक में अपनी विशेषताओं के आधार पर प्रसिद्धि प्राप्त कर ले । लोक साहित्य उतना ही प्राचीन है जितना कि मानव इसलिए उसमें जनजीवन की प्रत्येक अवस्था, वर्ग, समय और प्रकृति सभी विद्यमान है ।
डॉ सत्येंद्र के अनुसार लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग जो अभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है । (लोक साहित्य विज्ञान , डॉ सत्येंद्र पृष्ठ-3)
हमारे साहित्य की स्थापित परंपरा जनवादी लोकधर्मी परंपरा है । इस परंपरा ने कभी भी अपने आपको युग से पृथक नहीं किया बल्कि युग के अनुरूप ही अपने आप को ढालती चली गई और विकसित हुई । आज की कविता के संदर्भ में जब लोक की बात होती है तो सबसे बड़ा खतरा लोग की समझ का खड़ा हो जाता है । लोक के प्रति एक सुसंगत नजरिया न होना आज की कविता के लिए संकट खड़ा कर रहा है ।
लोक और शास्त्रों का अंतर्द्वंद
लोकगीत की परंपरा
साहित्य का बदलता स्वरूप
लोक साहित्य पर संकट बड़ा
अमीर खुसरो की पहेलियाँ
कबीर का काव्य कहाँ रहा
नागार्जुन का सामाजिक दर्पण
बिंबों का प्रतिमान छिपा ।।
अमीर खुसरो उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली गाँव में सन्1255 ई.को हुआ । यह दरबारी कवि होने के साथ-साथ लौकिक परंपरा के भी पक्षधर थे । संगीत के क्षेत्र में इन्होंने तबला एवं सितार से भारतीय परंपराओं का परिचय कराया । रागख्याला और रागतराना के भी बहुत बड़े विद्वान रहे । उन्होंने जनता के मनोरंजन के लिए पहेलियाँ लिखी । आदिकाल में खुसरों ने खड़ी बोली का प्रयोग काव्यभाषा में किया । खड़ी बोली का प्रथम कवि इन्हें ही माना जाता है । हिंदी साहित्य को ब्रज भाषा और खड़ी बोली के साथ-साथ फारसी के मिश्रण के द्वारा एक अनोखी पद्धति दी ।
उदाहरण-
चूक भई कुछ वासों ऐसी ।
देश छोड़ भयो परदेस (ब्रज भाषा)
कि ताबे हिज्राँ न दारम , ऐ जाँ !
न लेहु काहे लगाय छतियाँ (फारसी)
अमीर खुसरो अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी कवि एवं निजामुद्दीन औलिया के परम शिष्य थे ।
अगर हम संत कबीर की बात करें तो वह ज्ञानाश्रयी शाखा अर्थात संत काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं । संत कवि कबीर की रचनाओं का संकलन 'बीजक' में है और इसके संकलनकर्ता धर्मदास हैं। कबीर की भक्ति उनका दर्शन तथा उनकी कविता सामाजिक चेतना से ही ओतप्रोत है । कबीर मूलत: निरक्षर होने के कारण कबीर पुस्तक ज्ञान से कोसों दूर थे । इन्होंने सत्संगों के माध्यम से ज्ञान अर्जित किया इसलिए इनके दर्शन को बहुश्रुत दर्शन कहा गया । कबीर अनुभूति जन्य ज्ञान की ही वकालत करते थे ।
उदाहरण-
तोरा-मोरा मनवा कैसे इक होय
तू कहता कागज की लेखी
मैं कहता आँखन देखी
कबीर एक युग प्रवर्तक थे । सैद्धांतिक रूप से कबीर को किसी एक मत से संबंधित नहीं किया जा सकता । उनके अनुरूप जगत में जो कुछ भी है, वह भ्रम ही है । अंत में सब ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है । कबीर जबरदस्त व्यंग्यकार थे । कबीर ने हिंदू और मुसलमान दोनों मतों में पाए जाने वाले आडंबरों का विरोध किया है । कबीर धर्म के नाम पर लड़ने वाले हिंदू और मुसलमानों को बावला मानते थे ।
वे कहते हैं -
संतो देखहु जग बौराना
हिंदू कहें मोहि राम पियारा
तुरक कहें रहिमाना
आपस में दोऊ लरि-लरि
मरम न काहू जाना
आज का शायर गाता है -
"मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना"
यह सांप्रदायिकता आज भी मानव समाज का महान अभिशाप बनी हुई है इसी धर्मांधता के विरुद्ध आज से 500 वर्ष पूर्व कबीर ने संपूर्ण शक्ति से अपनी आवाज बुलंद की थे ।
उसी प्रकार केदारनाथ सिंह जिनकी शिक्षा हिंदू विश्वविद्यालय बनारस में हुई बिम्ब विधान पर शोध कार्य संपन्न कर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की तभी से आप अध्यापनरत रहे । वह कविता, समीक्षा और संगीत के प्रति विशेष रुचि रखते थे । केदारनाथ की सबसे पहले की कविताओं में बिंब विधान है । कवी का उस समय का अनुभव था कि बिंब विषय को मूर्त बनाते हैं । प्रारंभिक रचनाओं में बिम्बों और प्रतीकों के प्रति अत्यधिक मोह के कारण इनके काव्य में कहीं कहीं दुरूहता और अस्पषता्ट लक्षित होती है । किंतु तनिक कल्पना के उपयोग के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें भी ऐसी सूक्ष्म रेखाएँ हैं जो बोध को विशेष अर्थ प्रदान करती हैं । उन्होंने अपनी कविताओं में अधिकतर मुक्तक छंद का प्रयोग किया है जिसमें लयात्मकता का प्राय: अभाव है । भाषा में उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग बाहुल्य चिंत्य है ।
वहीं वैद्यनाथ मिश्र अर्थात नागार्जुन एक प्रतिभा संपन्न कवि सफल पत्रकार उपन्यासकार और समीक्षक है । 'योगधारा' , 'प्रेत का बयान' तथा 'सतरंगी पंखों वाली' इनके कविता संग्रह हैं । सहजता नागार्जुन के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है उनका काव्य लोक चेतना और यथार्थ अनुभव से अनुप्राणित है । प्राय: इन्होंने स्वाधीन भारत के शोषित किसान और निर्धन वर्ग की पीड़ाओं को अपनी कविताओं का विषय बनाया है । उनकी भाषा में सच्चाई और यथार्थ अनुभूति के साथ-साथ अतीव तीखे, गहरी व्यंग हैं ।
'प्रेत का बयान' में एक भूख से मृत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक के माध्यम से स्वाधीन भारत में 'गरीबी हटाओ' की दुहाई देने वालों पर कितना तीव्र करुण व्यंग है -
साक्षी है धरती साक्षी है आकाश
और और और और और भले
नाना प्रकार की व्याधियाँ हों भारत में
किंतु उठा कर देखों बांह
किट-किट करने लगा प्रेत
किन्तु
भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
नागार्जुन की व्यंग्य क्षमता उनके समकालीन कवियों में अलग से पहचानी जाती है । नागार्जुन के माध्यम से समाज के उपेक्षित वर्ग किसान, मजदूर, रिक्शाचालक आदि को सशक्त प्रखर वाणी मिली है । इनके साहित्य का केंद्र बिंदु बहुधा प्रकृत साधारण, लघु मानव रहा है और ऐसे विषयों को साहित्य की कोटी में समाविष्ट किया गया है, जिन्हें अन्य साहित्यकार उन्हें साहित्येतर समझकर आशंकित भाव से उनसे किनारा कर रहे हैं । किंतु इतना तो नि:संदिग्ध है, कि वे लोक-जीवन व क्षुद्र समझे जाने वाले सामान्य जनजीवन के प्रति आजीवन अपनी प्रतिबद्धता निभाते रहे और विशेषत: उनके बोध स्तरोपयोगीलोकवाणी के माध्यम से उनके साहित्य में सामान्य जनजीवन व लोकजीवन सदा संपृक्त रहे ।
लोक साहित्य संस्कृति की अमूल्य निधि है । महात्मा गाँधी के निम्नलिखित शब्द जिसमें लोक साहित्य के सांस्कृतिक पक्ष की महत्ता प्रकट की गई है सिर्फ चिरस्मरणीय है ।
'हाँ, लोकगीतों की प्रशंसा अवश्य करूँगा क्योंकि मैं मानता हूँ कि लोकगीत समूची संस्कृति के पहरेदार होते हैं ।
गुजराती मनीषी काका कालेलकर ने लोक साहित्य के सांस्कृतिक पक्ष को इन शब्दों में व्यक्त किया है -
'लोक साहित्य के अध्ययन से उनके उद्धार से हम कृत्रिमता का कवच तोड़ सकेंगे और स्वाभाविकता की शुद्ध हवा में फिरने, डोलने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे । स्वाभाविकता से आत्म शुद्धि संभव है । अंत में हम यही कह सकते हैं कि लोकसाहित्य जनसंस्कृति का दर्पण है तो अत्युक्ति न होगी । कहते हैं कि संस्कृति की आधारशिला पुरातन होती है ।
संदर्भ
हिंदी साहित्य युग प्रवृतियाँ ( डॉ शिवकुमार शर्मा) पृष्ठ - ११०, १६६, १६९, ५६७, ५७४, ५७५
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