Wednesday, 16 May 2018

ग़ज़ल

ग़ज़ल

नीरू मोहन 'वागीश्वरी'

अपनी ग़ुर्बत को यूँ दुनिया से छुपा रक्खा था
ध्यान लोगों का कहीं और लगा रक्खा था

छलनी होता था जिगर, अश्क बहा करते थे
उसने इल्ज़ाम ही कुछ ऐसा लगा रक्खा था

उसपे विश्वास न करती तो भला क्या करती
उसने अंगार हथेली पे उठा रक्खा था

इस  ज़माने  ने  कभी  क़द्र  न जानी मेरी
ख़ाक-सा मुझको हवाओं में उड़ा रक्खा था

हाथ उसने न मिलाया तो ये उसकी मर्ज़ी
हाथ मैंने तो मगर अपना बढ़ा रक्खा था

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