यह तो घर प्रेम का, खाला का घर नाही ।
सिर उतारे भूंई धरे , तब पैठे घर माही ।।
कबीर जी के समाज पशुओं का झुंड नहीं है उसके दो तत्व हैं रागात्मकता और सहचेतना अर्थात मानव समाज में रागात्मक रूप से एक अतः संबंध होना चाहिए और जीवन की स्वस्थ व्यवस्था के लिए एक अभिज्ञान भी इसलिए कबीर ने वैष्णव मन पर बल दिया है। वैष्णव मन अर्थात् ऐसा मन जो दरियादिल है, जो दूसरों के बारे में सोचता है , जिसका संबंध लोकहित से होता है , को दूसरों के दुख - सुख का अनुभव कर सकता है; इसलिए कबीर के जीवन दर्शन का एक ही केंद्र है - " प्रेम " यह वह प्रेम है जो अपने लिए नहीं है दूसरों के लिए है । यह वह प्रेम है जिससे ईश्वर को पाया जा सकता है । यह वह प्रेम है जो स्वार्थरहित है ।
भक्तिकालीन निर्गुण संत परंपरा के आधार स्तंभ संत कबीर के जन्म और मृत्यु से संबंधित अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं । ये गृहस्थ संत थे तथा राम और रहीम की एकता में विश्वास रखते थे । कहा जाता है कि सन् 1348 में काशी में उनका जन्म हुआ और सन् 1518 के आस - पास मगहर में देहांत हुआ । कबीर ने विधिवत् शिक्षा नहीं पाई थी उनका ज्ञान अनुभव पर आधारित था जो पर्यटन और सत्संगों से प्राप्त हुआ । वे हिंदी साहित्य के भक्ति - कालीन युग में ज्ञानाश्रयी - निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे ।
वर्तमान परिवेश की बात कही जाए तो आज प्रेम की भावना लुप्त हो गई है । आज भी कबीर के समय जैसा जाति, धर्म इत्यादि का भेदभाव देखने को मिलता है । अनेक संप्रदायों के मन और विचार भी समान नहीं होते । कहीं भी धर्म के आधार पर, मंदिर - मस्ज़िद के नाम पर हिंसा भड़क ही जाती है । ऐसी स्थिति से निपटने के लिए आज कबीर पंथ की आवश्यकता है जो इन सभी के दिलों से दूरियों को मिटा सके । कबीर पंथ लोकहितकारी पंथ है उनकी शिक्षाएं भेदभाव से परे सहिष्णुता और प्रेम का संदेश देती हैं ।
कबीर के समय हिन्दू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था । कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गई । उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि आम आदमी तक उनकी अमृत वाणी पहुंच सके । इससे दोनों समुदायों के परस्पर मिलन में सुविधा होगी । कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे आहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे । कबीर राम, रहीम और काशी, काबा में कोई भेद नहीं मानते थे । उनके अनुसार दोनों स्थान ईश्वर के पवित्र स्थल हैं और ईश्वर की उपासना के लिए प्रयोग होते हैं । उनके अनुसार ईश्वर एक है और दोनों ही रूपों में हम ईश्वर को याद करते हैं ।
कबीर का दृष्टकोण सुधारवादी ही रहा है । कबीर अपने नीति परक, मंगलकारी सुझावों के द्वारा जनता को आगाह करते रहे और चेतावनी देते रहे कि जनकल्याण हेतु उनकी बातों को ध्यान से सुनें और अमल में लाएं । आधुनिक संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है । आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है जो कबीर काल में थी । सामाजिक आडंबर, भेदभाव, ऊंच - नीच की भावना , धार्मिक भेदभाव आज भी समाज में व्याप्त हैं । भ्रष्टाचार चहुं ओर व्याप्त है । समाज के प्रत्येक स्तर पर नैतिक मूल्यों का विघटन देखा जा सकता है । देश में सत्ता पक्ष से लेकर जनता तक किसी के भी विचार एक - दूसरे से मेल नहीं खाते । सभी अपनी - अपनी डफली
और अपना - अपना राग अलाप रहे हैं और देश को दरिद्रता की ओर ले जा रहे हैं जहां अंधकार के अलावा कुछ नहीं है । इसी अंधकार से बचने के लिए आज आवश्यकता उन्हीं मूल सिद्धान्तों, विचारों और शिक्षा की है जिससे उजियारे को प्राप्त किया का सके ।
वैष्णव संत आचार्य रामानंद के शिष्य कबीर जिनकी शिक्षा और विचार आज वर्तमान परिवेश में अति प्रासंगिक हैं जिनको अपनाकर अपनत्व, भाईचारे की भावना को प्राप्त किया का सकता है । कबीर जी की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है, स्थान विशेष के कारण नहीं ।
डॉ नीरू मोहन ' वागीश्वरी '
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