उड़ी ……उड़ चली …सपनो में लगाके पंख
रुकी न …अब…बह चली पवन बन , नदी संग - संग
घटाएं जो घिरी थी सब …पलभर में हुईं ओझल
सूरज ने जो तानी है …सुनहरी प्रभा चादर
नए सपनों के रंग आशाओं के संग
हौसलों की उड़ाने , उजालों के संग
कुछ पाने की आशा मन में लिए
हाथों को खोले … अब
उड़ने को चली नभ तक … सपनों के लगा के पंख
उड़ी ……उड़ चली क्षितिज को पाने अब
सूरज ने जो तानी है सुनहरी प्रभा चादर
अभिमान बनूंगी मैं _ सहारा बनूंगी मैं_बेटे से न पाया जो मान बनूंगी मैं ।
बेटी हूं मैं … न सोचने दूंगी ये , बेटे से भी ज्यादा नाम करूंगी मैं ।
बेटे की चाह न फिर जीवन में करोगे तुम, बेटी के जन्म पे शोक करोगे न तुम ।
मांगोगे दुआ हर पल बेटी से भरे आंगन , सूरज ने जो तानी है सुनहरी प्रभा चादर ।
उड़ने को हूं बेचैन , न रोक मुझे बादल
पा लूंगी हर मंजिल , होंसले सब बुलंद है अब ।
ममता दया करुणा साहस सब कुछ मेरे अंदर
मां बहन बहू बेटी … जलधि नध और सागर
सम्पूर्ण धारा मुझसे … जन्नी … दूं नवजीवन
सृष्टि की संवाहक , लक्ष्मी दुर्गा अंदर
बेटी हूं मैं जग की शिक्षा की हूं मैं खान
जननी संस्कारों की शिक्षित करती परिवार
सबको ये बताने सच … अनजान बने हैं जो
न कमतर है बेटी … वंश जिससे बने बेहतर
उड़ी… उड़ चली
सपनों के लगा के पंख
सूरज ने को तानी है
सुनहरी चादर नभ तक
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