Wednesday, 7 February 2018

पुस्तक का नाम ' पद्मांजलि ' नारी के समस्त रूपों और भावों का सजीव चित्रण

***आत्म अभिव्यक्ति

नारी समाज की ऐसी संवेदनशील पात्र हैं जो सदियों से करुणा दया प्यार ममता की मूरत कही जाती हैं । कहते हैं नारी तेरे रूप अनेक कहीं कौशल्या तो कहीं केकैय अनेक । नारी इस जीव लोक पर ईश्वर का उपहार है जो सृष्टि के निर्माण के लिए ईश्वर द्वारा पृथ्वी पर अवतरित हुआ है । नारी ईश्वर की एक ऐसी संरचना है जो सर्वशक्तिशाली कही गई है जिसमें सभी कार्यों को करने की क्षमता और शक्ति है । नारी सौंदर्य का प्रतीक , वीरता की मिसाल , ममता प्यार करूणा और दया की मूरत कही जाती है ।

नारी संपूर्ण रूप से सक्षम है अगर हम इतिहास की ओर रुख करते हैं तो हमें अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जिसमें हमें नारी के समस्त रूपों का चित्रण मिलता है । मिसाल के तौर पर झांसी की रानी,  रानी पद्मिनी , हाड़ा रानी, पन्नाधाय, मदर टेरेसा, महादेवी वर्मा ऐसे कुछ उदाहरण आज भी जीवांत हैं । हम सदियों से कहते आ रहे हैं , "नारी तू कमजोर नहीं शक्ति शक्ति की संवाहक है, नारी सर्व शक्तिशाली है , नारी नर को जन्म देने वाली है।" फिर भी आज इस समाज में उसी नारी को ,जो पूजनीय हैं कन्या के रूप में निर्ममता से मारा जाता है । उसका अपमान किया जाता है । उसको सरेआम बेपर्दा किया जाता है । यह कैसा समाज है जो जिससे जन्म लेता है उसको ही जन्म से पहले ही मार देता है ।

आज भी समाज में ऐसे समुदाय हैं जो लड़कियों को जन्म से पहले ही मार देते हैं उनको शिक्षा का अधिकार नहीं देते उनको घर से बाहर नहीं निकलने देते । मेरी पुस्तक में समाहित रचनाओं के माध्यम से साहित्य की अनेक विधाओं द्वारा नारी के प्रत्येक रूप का चित्रण किया गया है । समाज में उनकी व्यथा और उसके सुधार की ओर दिशा निर्देश किया गया है । यह एक कोशिश मात्र है नारी की समस्त रूपों का चित्रण समाज के सामने प्रस्तुत करने का । आज की नारी को किसी सहारे की जरूरत नहीं , किसी आरक्षण की जरूरत नहीं है और किसी के सहारे की जरूुरत नहीं है बल्कि आज वह इतनी सक्षम है कि अकेले कंधों पर पूरे परिवार का पालन पोषण कर सकती हैं घर के साथ-साथ बाहर भी अपनी भूमिका निभा सकती है । आज नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा और कदम से कदम मिलाकर चल रही है। बल्कि एक कदम आगे है कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा ।

समर्पण

माँ शब्द की अनुभूति ही मन के तारों को झंकृत कर देती है । किताब को लिखने की प्रेरणा मेरी माँ स्वर्गीय 'श्रीमती पदम देवी' हैं । जो आज अपने स्थूल रूप में इस जीव लोक में विद्यमान नहीं है परंतु अपने सूक्ष्म रुप में हमेशा मेरे मन मस्तिष्क में निवास करती है । मेरी माँ ही मेरी प्रेरणा हैं जो मेरे पास न होते हुए भी हमेशा मेरी प्रेरणा रही  हैं । इस किताब में जितनी भी रचनाएँ रची गई हैं उनको लिखते श्रण मेरी माँ मेरी प्रेरणा बन कर मेरी आँखों में और मस्तिष्क के हर कोने में विद्यमान रही हैं जहाँ से विचार बाहर निकल कर लेखनी के रूप में इस श्वेत पत्र पर सिमट कर आपके समक्ष प्रस्तुत हो रहे हैं ।

इस पुस्तक का प्रत्येक शब्द मेरी माँ और उन सभी महिलाओं को समर्पित है जो अपने परिवार के लिए अपने जीवन का हर अंश समर्पित करती हैं । पूरे ब्रह्मांड की समस्त नारी प्रजाति को शब्दों से गुंफित सुमन सुरभि अर्पित करती हूँ । और ईश्वर से कामना करती हूँ कि वह हर नारी को इतनी शक्ति धैर्य साहस प्रदान करें कि वह इस जीव लोक पर हमेशा अच्छे संस्कार और गुणों को प्रवाहित करती रहें और अपने कर्तव्य मार्ग पर बने रह कर इस लोक का उद्यार करती रहे।

* 'पद्मांजलि' का प्रत्येक शब्द समस्त विश्व  की मातृशक्ति को समर्पित ।

*आज भी अकेली है नारी

एक नारी…हाँ एक नारी
क्यों ठोकरों में ठुकराई जाती है ?
क्यों मर्द की आँखों में वह
पैरों की जूती कही जाती है ?
सोचती हूँ…सोचती हूँ
जब इस दर्द के मर्म के एहसास को
क्यों नारी ही नर से ठुकराई जाती है ।
देती है जो सृष्टि को जीवन
देवों में पूजी जाती है ।
फिर भी इस जालिम मर्द के आगे
कमजोर समझी जाती है ।

सर्वस्व लुटाती, परिवार पालती,
घर संभालती है ।
अपने मुँह का निवाला भी वह
औरों को खिलाती हैं ।
माँ, बेटी, बहू बन
सारी जिम्मेदारी निभाती है ।
फिर बस नारी ही क्यों
सत्य की कसौटी पर आँकी जाती है ।

कितना स्वार्थी है ये नर…
जन्म लेता है जिसकी कोख से
उसी को कलंकित करने को…
आतुर रहता है ।
माँ की गोद और आँचल के साए में
जो सुरक्षित रहता है ।
फिर क्यों … फिर क्यों एक दिन
उसी आँचल को मेला करने में
सबसे आगे भीड़ में खड़ा रहता है ।

कभी पति बनकर प्रताड़ना देता है ।
तो कभी प्रेमी बन…
बदनामी का जहर देता है ।
देखती हूँ जब…
हाल इससे भी बुरा बना दिया है इसने कभी पिता तो कभी ससुर बन
अस्तित्व जला दिया है इसने ।

पिता के घर होती है…
तो भी दुख सहती है ।
कभी घरवालों के
कभी रिश्तेदारों के जुल्म सहती है ।
कुछ नहीं कहती…
जब दागदार होती है ।
रिश्ता किसी का किसी से न बिगड़े
यही सोचती हैं ।
परिवार की इज्ज़त की खातिर
चुप्पी साध लेती है ।
बेबस होकर भी रिश्ते निभा लेती है ।

दिया भगवान ने इसे करुणा, दया, सहनशीलता का वरदान है ।
हजारों दुखों में भी मुँख पर
मुस्कान बनाए रखती है ।
आँखो में नमी लिए
अश्रुधार संभालती हैं ।
नयननीर को भी हृदय में उतार लेती है ।

ससुराल की चौखट पर पहुँचते ही
बेबस और लाचार नजर आती है ।
पराए घर से पराए ही घर में
जब आती है ।
यह मर्म सृष्टि के अंत तक ही
मर्म रहेगा ।
एक नारी का अपना घर
स्वर्ग में ही बनेगा ।
क्योंकि पृथ्वी पर तो सिर्फ
पत्थर की मूरत पूजी जाती है ।
लक्ष्मी और दुर्गा केवल मूर्ति में ही
नजर आती हैं ।
घर की लक्ष्मी को ठोकरों में
ठुकराया जाता है ।
दुर्गा का रूप जो धर ले तो उसे…
घर की चारदीवारी में जलाया जाता है ।

जो दुख सहती प्रताड़ना पाती है ।
सिर्फ और सिर्फ…
बच्चों की खातिर ही जिंदा रहती है । जीवनसाथी का जिसे
साथ नहीं मिलता है ।
वो औरत…वो औरत
ससुराल में आहुति बन जाती है ।

पति की लंबी आयु के लिए
व्रत रखती है ।
होई अष्टमी का व्रत रखकर
संतान बचाती है ।
संकट चौथ पर
सास-ससुर को मान देती है ।
फिर भी शंका की नजर से
हमेशा देखी जाती है ।

सोचती हूँ … जब इन सब बातों को
तो सिर्फ नारी ही क्यों…
कटघरे में नजर आती है ।
अपनी पूरी जिंदगी
दूसरों को अर्पित करके भी
यह अंत में अकेली ही…
खड़ी नजर आती है ।

जीवन जीती दूसरों के लिए…केवल
काँटों की राह भी सबकी
सहर बनाती है ।
मन, कर्म, वचन से
नारी हर अपना धर्म निभाती है ।
फिर भी अपने आपको
ज़ालिम समाज की बेड़ियों में पाती है ।

पूजनीय है यह सर्वस्व
लक्ष्मी स्वरूपा है यह बस
नहीं कम यह किसी से
नहीं हारी ये किसी से
सहनशील है यह बस
शक्ति का भंडार है इसके अंदर
नारी है यह… नारी है बस ।।।

*****************

* तुम लड़की हो समझो ज़रा

तुम लड़की हो समझो ज़रा

शर्म हया गहना है तुम्हारा
लाज का पर्दा नज़रों में रखना ज़रा
पापा के सामने आदब से जाना
सलवार सूट के ऊपर दुपट्टे को सजाना भाई से बात करते हुए तमीज दर्शाना जवाब सवाल न करना
घर का बड़ा है वह हमारा

तुम लड़की हो समझो ज़रा ।।

बाहर निकलो तो नजर नीचे झुकाना किसी के सामने सिर कभी मत उठाना पढ़ने का बोझ तुम्हें नहीं है उठाना
हमें तुमसे नौकरी थोड़ी है करवाना
नौकरी करना सिर्फ मर्दों का काम है लड़की को तो सिर्फ घर की चारदीवारी में ही काम है

तुम लड़की हो समझो ज़रा ।।

बहुत सुनती आई हूँ इस तरह की बातें बचपन से लेकर जवानी तक कटी यही सुन सुन कर रातें
तुम लड़की हो समझो ज़रा ।।
तुम लड़की हो समझो ज़रा ।।

अब और नहीं सुन, सह सकती कटु वाणी मैं लड़की हूँ यही समझाना है अब तुम को ज़रा ।।

नीरू कहती जो कहे ऐसी बातें तुमको सुनाओ लक्ष्मीबाई की बातें उनको ज़रा
सोच को ऐसे लोगों की बदलना होगा लड़की नहीं है कोई गहना घर का
उड़ान भरने का उसको भी दो संपूर्ण मौका ।।

******************

* हाँ… मैं वो लाचार औरत हूँ

हाँ…मैं हूँ लाचार -------

नसीब का है खेल
महलों में जन्मी तब भी लाचार
सड़कों पर जन्मी तब भी लाचार
क्यों ? नसीब में नारी के लाचारी सिरोताज ।।
कहते हैं लोग मैं हूँ सिर्फ लाचार
आज बताती मैं अपनी लाचारी
मेरी ही नहीं हम सब की कहानी

बहू बनकर ताने सहती
बेटी बन बेड़ियों में रहती
माँ बन दुख-दर्द सारे झेलती
पत्नी बन ठोकरों में रहती
हाँ…मैं हूँ लाचार ------

खुद भूखे रहकर
परिवार का पेट भरूँ
खुद के अरमानों की शैय्या पर…
रोज़ मारूँ
स्वयं को डाल विपदा में…
दोषारोपण सहा करूँ
कोई नहीं मेरा इस जग में
सारे कष्ट में स्वयं सहूँ
हाँ…मैं हूँ लाचार-------

जन्म लिया नारी का मैंने
क्या यह मेरा अभिशाप है
नर को जन्म दिया मैंने …क्या यही मेरा दुष्पाप है ??
जन्म दिया जिस नर को मैंने
उस नर ने ही मुझको नष्ट किया
जन्म लेकर मेरी ही कोख से
अपमानित मुझे दर-दर किया
हाँ…मैं हूँ वो लाचार -----
जिसने  नर को जन्म दिया ।।।

एक और घर संभालती हूँ
दूसरी और काम पर जाती हूँ
फिर भी पति की आँखों में
शंका को ही बस पाती हूँ
हाँ…मैं वो लाचार ----

लोगों की बुरी नजर सहती हूँ
अपने तन को रोज़ बचाती हूँ
मैला आँचल न हो जाए…बस
रोज़ यही दुआ मनाती हूँ
हाँ…मैं हूँ वो लाचार -----

रोज़ सूर्य उदय होता है
रोज रात भी होती है
पर मैं वो हूँ जिसके जीवन में
रातऔर सुबह नहीं होती है
हाँ…मैं वो लाचार ----

बच्चों के लिए मैं जीती हूँ
पतिव्रता बन जीवन बिताती हूँ
फिर भी अंतिम क्षण में अपने को
लाचार खड़ी मैं पाती हूँ
हाँ…मैं वो लाचार औरत हूँ …
जो जीवनपर्यंत दूसरों के लिए जीती है ।।

**************

**तेज़ाब

प्यार एक तरफा था
मेरी क्या ख़ता थी इसमें
तेजाब फेंक कर तूने मुझ पर
शरीर क्यों मेरा फूँक दिया

बहुत अरमान थे दिल में
मां-बाप के सपने जुड़े थे जिसमें
एक पल में ही तूने
रौंदकर तेजाब में सब जला दिए

भगवान के दिए इस रूप को
क्यों तूने बर्बाद किया
जला कर चेहरा मेरा
बदसूरती का यह दाग दिया

सुंदरता पर रीझा था मेरी तू
बिगाड़ चेहरा मेरा तुझे क्या हासिल हुआ । डाल तेज़ाब की धार मुझपे
अंग बर्बाद करके न जाने तू कहाँ गया ।

कौन थामेगा… कौन थामेगा मेरा हाथ
माँ-बाप को गम तांउम्र दे गया ।
बर्बाद करके यह मेरी जिंदगी
तुझको क्या हासिल हुआ ।

************

** मैं नहीं तू भी बेपर्दा हुआ है

लिख रही हूं वो एहसास जो गुजरते हैं एक लड़की के साथ……

* आबरू मेरी लूटकर जो तू इतनी शान से चला जाता है ।
बे-पर्दा में ही नहीं तू भी हुआ जाता है ।
नोच के मेरे तन को न तूने मर्दानगी  दिखाई अपनी……
बल्कि नामर्द बन के तू यहाँ से उठा है ।

* क्या सोचता है
मुझे यूं खत्म करके
तू क्या सुचा रहा है…
जो कर्म तूने मेरे साथ किया है उसका अंश तू भी बना है ।
मुझे ही नहीं तुझे भी कलुष ही मिला है ।

* मेरी नजर में तू मर्द नहीं नामर्द बना है । क्योंकि रात के साए में तूने मुझे बे-आबरू किया है…
शायद परिवार से तुझे सीख न मिल पाई,  कि नारी लक्ष्मी है सृष्टी उसने रचाई ।

* मुझे बदनाम करके माँ का नाम न तूने रोशन किया है,
बल्कि उसके दूध को तूने सरेआम बदनाम किया है ।
मुझे किया है जो बेपर्दा तूने…
माँ के नाम को बेदाग किया है,
कोख को तूने उसकी…
नि:शब्द किया है ।

माफी न मिल पाएगी तुझे
तेरे इस कुकर्म की कभी
अपनी इस करनी के मर्म से
तू न कभी पाएगा गति…
तू न कभी पाएगा गति…

********

** मेरी तन्हाई

एक तन्हाई सी छिपी है
मेरी हर सुबह और शाम में
शायद यह जिंदगी इसी दर्द और गम में
यूं ही कट जाएगी ।

मौत आएगी मेरे सामने
जिस पल भी ऐ दोस्तों
मुझसे टकराकर चोट खाकर
खुद ही वापस चली जाएगी ।

अपने ही सीने में दफना दी है
कब्र अपनी…अपने हाथों से
मौत भी मुझसे होकर
लहूलुहान वापस जाएगी ।

जर्रा-जर्रा दर्द पर्वत बन बैठा
यूं मेरे सीने पर…
बे इख्त़ियारी मेरी ही…
मुझको सरेआम लुटवाकर जाएगी ।

गुम़गुस्सार मेरा अब न कोई बचा
इस जँहा में
ये जिंदगी मिट्टी की…
मिट्टी में ही मिल फना हो जाएगी ।

*******

** ओझल सपने

आँख बंद करने पर
सपने नहीं आते हैं ।
खुली आँखों से देखने पर
ओझल हो जाते हैं ।

क्या करें इच्छाएँ, अभिलाषाएँ
कभी कम नहीं होती हैं ।
इनके पूरे होने के दिन
कभी नहीं आते हैं ।

रात की चाँदनी अब
यूँ ही फना होती है ।
यूँ ही सुबह होती
शाम होती है ।

रात की चाँदनी में
आँखें भी नम रहती हैं ।
बच्चों की खुशी में ही अब
अपनी खुशी छिपी रहती है ।

*********

** नारी हृदय

क्यों बनाया हृदय मेरा
फूल-सा कोमल… हे ईश्वर !
मसलकर कोई भी चला जाता है।
पत्थर दिल दुनिया में मुझे रोते
यूं ही तन्हा छोड़ जाता है ।
भाव सबके लिए रखती हूँ
प्यार वाले दिल में …
फिर भी प्यार की जगह…
तीर धारवाले दिल के पार कर जाता है ।
पता नहीं वो संग दिल
कहाँ से आता है…
और कहा चला जाता है ।
सिर्फ दर्द का एहसास
इस दिल पर छोड़ जाता है ।
पता है मुझे…
यूँ ही गम सहना है ।
अकेले ही हर जख्म का मरहम
खुद ही बनना है ।
नहीं आएगा कोई सहलाने
और जख्मों पर मरहम लगाने …
मुझे रिस्ते घाव को
यूँ ही खुला रखना है ।।

******

**रंग नहीं ये…नासूर का मर्म है

एक रंग चढ़ा है दिल पर
एक तन पर चढ़ गया ।
मिटाना चाहा जितना
उतना ही देह पर बढ़ गया ।

दिल पर चढ़ा है जो रंग
यूं ही अपने आप ही ढल गया ।
लेकिन चढ़ गया है जो तन पर
उतारे न उतरा……और गहरा गहरा गया ।

घायल मन तो हुआ नहीं
तन घायल ये कर गया ।
जख़्म नासूर देकर…
ये रंग…वहीं पर ही मर्म बन गया ।

दर्द सहती …
रोज़ पीड़ा से हूँ गुज़र रही ।
घायल रोज़ होती …
रोज़ शैय्या पर हूँ चढ़ रही ।

क्या कहूं …किस हाल में
जिंदगी बसर कर रही हूँ मैं ।
यूँ ही रोज़ जीते-जीते
अंगारों पर चल रही हूँ मैं ।

दिल पर चढ़े रंग का दर्द
न देखा मेरा… सिर्फ गम दिया ।
सामने जो था… उसी को देख
अपना-अपना मत दिया ।

बना दिया मुझे…
पत्थर की वो खंडित मूरत
जिसे देख…बिन सोचे समझे
मानुष भी पीछे हट गया ।

तेरी इस बेवफाई ने
दिया सिर्फ और सिर्फ कलुष रंग
क्या तुझको हांसिल हुआ
मुझे यूँ बदनाम कर ??

बदनाम कर तू मुझे
अंजान बनकर चला गया ।
रंग जो फैंका है मुझ पर
कालिख बन नासूर में वो बदल गया ।

मन पर चढ़ा था जो रंग
ज़र्रा-ज़र्रा…वो तो उतर गया ।
तन पर चढ़ा था जो रंग
वहीं सिमटकर मर्म बन गया ।

जीना है अब तो इसके साथ
नासूर बन जो तन पर रह गया ।
मरहम से जख़्म तो सूखा पर
निशान ताउम्र तन पर रह गया ।

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