** साँस-साँस में काम **
कलम हाथ में है
फिर भी कुछ सोच रही हूँ मैं
क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ
कामकाजी और घरेलू महिला
क्या फर्क है इन दोनों में …
कैसा और कितना दर्द है दोनों में …
सुबह उठती …
बच्चों को स्कूल जाना है …
सोचती ?????
पहले दिन की थकान •••अभी भी शरीर पर ••• आँखों पर झलकती ।
रसोई घर में जाती
कभी घड़ी को देखती …फिर सोचती जल्दी से शुरू हो जा …नहीं तो देर हो जाएगी ।
खाना बनाकर सभी का लंच बाँधती
बच्चों को जगाती उनको भी तैयार कर स्कूल की वैन बिठती ।
वहीं से अपने काम पर निकल जाती ।
वहीं दूसरी ओर… कहने को तो हैं
पति परमेश्वर …
नहाते, धोते… लंच उठाते और मजे से अपने दफ्तर की ओर निकल जाते ।
न कोई परेशानी
न कोई जिम्मेदारी ।।
रात को दोनों एक साथ वापस आते
क्या कहें… क्या कहें
इस पुरुष प्रधान समाज को …
पति जी तो कमरे में जाकर
थकान उतारते ।
वहीं थकी हारी शक्ति की मिसाल औरत
हाँ …औरत
रसोईघर में जाती ।
बच्चों और परिवार के लिए मनपसंद खाना बनाती ।
सबकी पसंद नपसंद का ख्याल रखती ।
काम से निपटकर फिर वही सुबह की दौड़-भाग के लिए दोबारा जद्दोजहद करती ।
यही है नारी…जो घर और बाहर दोनों जगह संतुलन बनाए रखती ।
दूसरी और घरेलू महिला
दिनचर्या तो उसकी भी वही रोज़ की
एक नारी कैसे बच सकती है इससे
सास की चाय…
ससुर की दवाई
बच्चों का स्कूल
पति की हर बात में ताना कसाई ।
बस यहीं तक सिमटकर
पूरे दिन घर को संभालना
बच्चों का इंतजार करना
शाम होते ही सासू जी की चाय
ससुर जी को टाइम से दवाई देना
उनके मित्रों के स्वागत सत्कार करते रहना
फिर शाम को भोजन की तैयारी
पति के आने का इंतजार…
और आते ही उनकी जी हजूरी
जी हाँ, यही है एक नारी…
सम्पूर्ण जीवन परिवार को अर्पण करती । हमेशा तानों में ही जीवन बसर करती ।
बच्चों के बिगड़ने का दोषारोपण सहती ।
सारी जिम्मेदारियों का बोझ अपने ऊपर लेती ।
चुप रहती कुछ नहीं कहती ।
कामकाजी हो या घरेलु
नारी अपमान सहती फिर भी आत्मसंयमित रहती ।
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