कविता
पुष्प की अभिलाषा
कभी मसला गया फिर सजाया गया ।
कभी वीरों के शव पर चढ़ाया गया ।
कभी देवों के चरणों की शोभा बना ।
कभी चौखट में मुझको लगाया गया ।
किसी ने न जानी है मेरी अभिलाषा ।
कभी शव पर चढ़ाया वरमाला बनाया ।
कभी पूजा की थाली की शोभा बना ।
कभी पैरों तले कुचला भी गया ।
उपवन को महकाया दिलों को मिलाया ।
मेरा हर कर्म शुभफल ही है लाया ।
नहीं स्वार्थ मुझमें कभी भी है आया ।
मेरा गुंचा - गुंचा उपयोगी कहलाया ।
कंटक में रहा दर्द सहता रहा ।
दर्द मेरा मिटाने कोई भी न आया ।
तोड़ डाली से मुझको, अंत मेरा किया ।
फिर भी मैंने जग-जन सुगंधित किया ।
डॉ. नीरू मोहन ' वागीश्वरी '
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