हमने गुरबत में भी दम साँसो में छिपा रखा था ।
कतरे-कतरे पे स्याही का असर लगता था ।
यूँ तो देखी थी जमाने की रुसवाई हमने ।
खाली हाथों पे अंगार कोई जब रखता था ।
छलनी होता था जिगर ,आँखों से अश्क बहता था ।
कोई जब वार,लफ्ज़ों से किया करता था ।
दर्प चुभने से नासूर जख़्म पाया हमने
देखकर मुंसिफ़ जब अनदेखा हमें करता था ।
इस जमाने ने कभी कद्र न जानी मेरी ।
कूचे-कूचे पे सरेआम हर रोज़ लुटा करता था ।
हाथ पकड़ा नहीं ,संभाला भी किसी ने ही नहीं ।
अपने ही आप गिरा और उठा करता था ।
दोस्त न है अब, न है कोई दुश्मन मेरा
किसी से ग़म कभी सांझा न किया करता था ।
इंसान ज़ालिम भी अहसान फरामोश यहाँ
तभी ग़म मैं किसी से सांझा न किया करता था ।
छोड़ दुनिया को जाने का मन है मेरा
कोई अब
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