Sunday, 18 March 2018

हाइकु 7

सर्प का डंक
सदैव है विषैला
मृत्यु समक्ष

जो गुणहीन
दर-दर भटके
गति न पाए

दलदल है
राजनैतिक दल
दल ही दल

घुन खा जाता
अनाज,आचरण
थोथा करता

कपटी मित्र
विषैला विषधर
छल करता

परमेश्वर
सृष्टि का रचयिता
पालनहार

दर्द का बीज
खुशहाली न लाता
मान घटाता

गंगा बचाओ
कुछ करो प्रयास
अशुद्ध जल

कटु वचन
शमशीर से तेज़
रिश्ते दमन

है उषाकाल
शिवरात्रि महान
दूध की धार

बेल के पत्र
कनक का प्रसाद
शिव का खास

रात्रि का तम
चंद्रिका सी चाँदनी
मिटते गम

मीत स्मरण
फलक पर चंद्र
प्रदीप्त मन

सुर्ख सूरज
है गगन रक्तिम
डूबता मन

सुंदर मुख
जैसे नभ में चंद्र
नयन तारा

सूनी सी मिश्रा
चंद्र की अगुवाई
लाती है आशा

अंबर तल
श्वेत निहारिकाएँ
निर्मल मन

छूने गगन
चली सागर लहरें
मंज़िल पाएँ

बेटी विदाई
नयन नीर भरे
प्रभात आई

पूनम चाँद
करें अल्हड़पन
सजन संग

नवीन सृष्टि
हुई अमृत वृष्टि
प्रेम की दृष्टि

प्रीत की डोर
प्राण इंद्रधनुषी
मिलेगा छोर

ऋतु स्वच्छंद
प्रकृति सुंदरता
प्रेम के छंद

भीगे नयन
स्मृतियों के वरद
लाएँ शमन

मौन की भाषा
होती है मौन स्पर्श
छू लेती मन

देव स्वरूप
प्रेम है परमात्मा
न दूजा रूप

बिखरे स्वप्न
अधूरी रही निद्रा
स्मृतियाँ बन

अमलतास
स्मृति की चोट पर
है उपचर्या           

चमक उठी
नैनों में बन ज्योति
आस झूठी

पुस्तक कीट
सदैव बना रहता
अक्ल का अंधा

मीठी सुहानी
बचपन की यादें
कहें कहानी

पिता की छाया
वट वृक्ष की भांति
प्रभु की माया

उदास मन
महकाए बसंत
प्रेम पुष्प

प्रीत प्रसंग
मन बजे मृदंग
उर मलंग

मुरझाई कली
अधखिला चमन
सूनी है गली

आया बसंत
चटकी है कलियाँ
खिल चमन

संग रहते
शूल संग फूल
दर्द सहते

कर्म का पथ
है आग का दरिया
जीवन रथ

बसंती लाज
है लाडली समेटे
राह पे आज

मासूम कली
घर आँगन खिली
क्यों गई छली ?

आँगन खिला
लाडो ने पाँव रखा
कुबेर मिला

बेटी चाहती
माँ सी अपनी छवि
दर्प निहारे

रेत के घर
नन्हे बच्चे बनाते
मिले न दर

छिड़ते युद्ध
रुदन चहुँ ओर
हँसते गिद्ध

फूल-सी पली
प्यारी बेटियाँ सभी
फिर क्यों जलीं

उंमुक्त पंछी
नभ में विचरण
मनुज बंदी

जल सी जल
पवित्र कब तक
है जाती छल

ये पतझड़
संग लाई है तनहाई
सूना आँगन

झूमे बसंत
नव कोपल संग
भरे रंगत

फूटी कोपल
नाच उठा आँगन
गूँजा है रव

महकी कली
तितलियों का शोर
बौराए अलि

मस्त मिलिंद
कलिया महक उठीं
ऋतु वसंत

अनंत रंग
है फागुन बसंत
गुलाबी अंग

मन सरस
संग पिया मिलन
फाग बरस

यादों की नदी
उफनती है जब
बदले सदी

पुष्प पंखुड़ी
कोमल रंग-बिरंगी
फूल से झड़ी

मन है तन्हा
लगा सावन झूला
पिया की याद

ऋतु बसंत
पुष्प बहार लाई
धरा प्रसन्न

पिया का साथ
बसंती मुसकान
हाथों में हाथ

मधुर धुनें
प्रेम प्रसंग सर्वत्र
लगे अगन

जिया बहका
पलाश की अगन
मन महका

होली के रंग
लाल 'लता पलाश'
जले हैं अंग

वन की अग्नि
पलाश की सजनी
क्षीर्ण रजनी

निष्ठुर माली
चमन पुष्पकली
मसल डाली

काँटो के संग
सदा हँसता रहता
कोमल पुष्प

नवीन शब्द
साहित्य को सजाते
सम्मान पाते

मुख पे तिल
शोभा सदा बढ़ाता
जैसे हो अलि

नाज़ों से पली
आँगन की लाडली
फूल-सी खिली             

छेड़ फसाना
गाएँ प्रेम तराना
बने बहाना

नवोढ़ा बेल
मसली पैरों तले
भाग का खेल

मंजरी गली
मकरंद सुरूर
भटके अलि

काँटो का दर्द
पुष्प सहता रहा
पाश में हँसा

नवप्रभात
भरपूर उजास
हार न मान

मृदुल बोल
मन महका जाता
शब्द सुमन

स्वर्ण सहर
देते छाया शजर
मस्त भ्रमर

अल्हड़ कली
मनचली संभली
बनी है बलि

स्वतंत्र राष्ट्र
नेता हो धृतराष्ट्र
परास्त राष्ट्र

गौरवान्वित
हिंदी भाषा से हम
करो सम्मान

बाल भवन
लगन स्वर्ण स्वप्न
ज्ञान आँगन

माँ वीणापाणि
बल-बुद्धि दायिनी
विद्या की देवी

माँ वागीश्वरी
ज्ञान धन प्रदाती
हरे दीनता

है मातृभाषा
जन संस्कृतिदायी
मिटे निराशा

लाए उजास
मातृ भाषा का ज्ञान
देश विकास

हैं वटवृक्ष
लगन के संस्कार
फैले प्रकाश

माँ हंसवाहिनी
वाणी है सँवारती
ज्ञान बढ़ाती

मेघ हैं आते
पिया याद दिलाते
पिया न आते

मां आशीर्वाद
नवरात्रि त्योहार
वास आबाद      

सर्वप्रथम
माँ शारदा नमन
अज्ञान खत्म

शिरडी साईं
नैया पार लगाई
खुशियाँ आईँ

श्री गिरधारी
ग्वालिन संग गैया
हैं लीलाधारी

शिव पार्वती
गणेश कार्तिकेय
करें आरती

राम की सीता
सातों वचन संग
वन में जाती

पवन पुत्र
राम के भक्त प्यारे
मन विराजे

शबरी खाती
राम के झूठे बेर
मुक्ति है पाती

है दुर्गा काली
रौंद्र रूप धारिणी
पाप मिटाती

रंगीन पुष्प
तितली मस्तानी
अलि है चुप

निशा का अंत
प्रभात का आगाज़
सूर्य नमन

कोयल गाती
बसंत का तराना
पीत सजाती

मस्त दीवाने
पूछें…क्या तेरा नाम
मैं बोली…बेटी

जड़ पर चोट
न मार ऐ इंसान
मिले न मोक्ष

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