विकास के साथ-साथ विनाश को रोकना संभव****
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी देश का विकास उस देश की समृद्धि और संपन्नता को दर्शाता है । यह समृद्धि और संपन्नता तब तक कायम रह सकती है जब तक की विकास की दिशा सही हो और अगर स्वार्थ पूर्ति के चलते जब हम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करन लगतेे हैं तब विनाश को रोकना असंभव हो जाता है । आज आदमी विकास की चरम अवस्था पार कर चुका है अगर हम अभी भी नहीं चेते तो इस विकास की कीमत सृष्टि के विनाश से चुकानी होगी । धरती का पर्यावरण नष्ट हो जाएगा तो जीवन का अंत संभव है ।
विकास प्रत्येक देश चाहता है मगर विनाश की कसौटी पर नहीं । भारत एक ऐसा देश है जिसको प्रकृति ने हर प्रकार की प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण किया है । जल,थल और वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में खनिज संपदाएँ हैं कि आने वाली असंख्य शताब्दियों में जीव-जंतुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति भली-भांति हो सकती है परंतु कहते हैं ना कि जहाँ लोभ बढ़-चढ़ जाता है वहाँ आपूर्ति में अवश्य ही कमी आती है । जहाँ आवश्यकताएँ लोभ में परिवर्तित हो जाती हैं तो भयवह परिणाम और स्थिति पैदा हो जाती है । विकास के नाम पर मनुष्य की बढ़ती भूख विनाश के लिए उत्तरदायी है । वह प्राकृतिक संसाधनों का न सिर्फ दोहन करता है बल्कि उन्हें कृत्रिम तरीकों से नियंत्रित करता है । पारिस्थितिकी पर जो खतरा है वह मानव में उत्पन्न किया है मानव की विकास प्रक्रिया पर्यावरण और पारिस्थितिकी सभी चक्रों को प्रभावित कर रही है । विकास के साथ-साथ हमें आने वाले विनाश को रोकना जरूरी हो गया है । मनुष्य यह सब देख समझ रहा है और विकास की अंधी दौड़ के बीच पर्यावरण बचाने के लिए सार्थक प्रयास भी कर रहा है हमें यह समझना जरूरी है कि अपने पर्यावरण और पारिस्थितिकी बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ हमारी है अगर हम इससे बचेंगे तो अपने विनाश की कहानी अपने ही हाथों से स्वयं लिखेंगे ।
विकास करना है जरूरी तो
विनाश रोकने का करो सार्थक प्रयास भावी जीवन को सुखमय बनाना है तो प्राकृतिक दोहन न करो बार बार…।
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