पुरुष जब हार जाता है ।
मेरे दरवाजे पर ही आता है ।
क्यों नहीं वह मुझे भी अपनी चौखट तक ले जाता है ।
मुझे क्यों नहीं अपने घर की रौनक बनाता है ।
दुख को अपने भुलाने अपने आ जाता है मेरी चौखट पर ।
और रौंद कर मुझे दर्द का एक और पल दे जाता है उषा की भौर तक ।
क्यों नहीं मेरा ये दुख समझ पाता है ?
क्यों केवल रात बिताने ही मेरे कूँचे पर आता है।
मैं एक नहीं मेरे जैसी हज़ारों हैं इस कैदखाने में ।
रात रौशन करती हैं सभी की इस बूचड़खाने में ।
हालात से समझौता किया है मैंने यहाँ ।
तुम जैसे ही दरिंदों ने बिठाया है मुझे यहाँ ।
इस कोठे पर लाकर तुम्हीं ने दिया है ये मनहूस तोहफ़ा मुझको ।
वैश्या नाम का खंज़र पकड़ा दिया है मुझको ।
रोज़ जिससे कूँचे-कूँचे पर खून होता है यहाँ।
आत्मा पर बाण चलाया जाता है बेदर्द नपुंसकों का सदा यहाँ ।
ये जिंदगी देखने में रंगीन लगती होगी तुम्हें दोस्तों ।
अपने रंगों को खोकर हमने हज़ारों के जीवन में रंग भरा है यहाँ ।
ठुकराए जो मर्द, घरों से जाते हैं अपने ।
हमारे ही घर के दरवाजे खटखटाते हैं दुख में अपने ।
मगर भीड़ में नहीं होता है ऐसा कोई भी हमदर्द हमदिल ।
जो कहे चल तेरी माँग में सितारे भर दूँ एक दिन ।
सुहाने सपने हमारे भी माँ-बाप ने संजोए थे ।
डोली में बिटिया बैठेगी मेरी, कहते थे हर दिन ।
क्या पता था आएगा अंजान तूफ़ान एक पल ऐसा ।
उड़ा ले जाएगा धोखे से उनकी बेटी को उस दिन ।
याद तो बहुत आती है संगी-सहेलियों, माँ- बाप, भाई-बहन की मुझको भी ।
पर क्या करें समझौता हमने भी कर लिया है हालातों से यूँ ही ।
*कहती नीरू होती है सबकी अलग-अलग कहानी ।
कोई खुद बनती है शिकार अनजाने में, किसी को हालात ज़माने के बना देते हैं ।
सरेआम बाजार में बिठा देते हैं ।
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