Friday, 3 November 2017

व्यथा भगीरथी की

आज का विषय - गंगा
शीर्षक- व्यथा भगीरथी की
रचनाकार- नीरू मोहन

*निर्झरिणी स्वछंद दुग्ध धारा है,
कभी ठंडी कभी शीतल जयमाल है।
कलकल छलछल बहती त्रिपंचगा ।
प्यास सभी की बुझाती जा रही है।
मगर पहुंचकर तट पर,
मैली होती जा रही है।

*बैठी एक दिन देवनदी पर,
देख रही थी सुरसरि का यह हाल।
कौन सुनेगा तेरी आह, 
नदीश्वरी धीरे बहो, धीरे बहो।
जाना है अभी तुझे बहुत दूर, 
बहुत दूर उस पार।

*सभ्यताएँ जन्मी, 
संस्कृतियाँ परवान चढ़ी।
तेरे आंचल के साये में 
सारी दुनिया पली बढ़ी।
आज किसे है ये एहसास, 
त्रिपथगामिनी धीरे बहो, धीरे बहो जाना है तुम्हें उस पार ।

*कैसे चुकाएगा तेरा एहसान,
स्वार्थी निर्मोही इंसान।
कैसे समझाएँ 
इस निर्बोध मानव को
मैला करके तुझे, 
कुछ न प्राप्त कर पाएगा ये भंगुर।
अपने कुकृत्य से अंत नज़दीक लाएगा ये भंगुर ।

*आज ये आधुनिकता के नशे में 
हो गया है चूर-चूर,
नहीं सुन पाएगा तेरी आह, 
मंदाकिनी धीरे बहो, धीरे बहो।

*संभल जा, थम जा, रे मूढ़ ।
इसे नष्ट करके प्राप्त कुछ न कर पाएगा ।
अपने जीवन में जल विहीन हो जाएगा ।
शीतल धार देती है यह
नदी है, नदी है, जगदीश्वरी है ये ।

*वर्षों का इतिहास समेटे 
कथा कह रही है यह
आँसू पीते ,मलबा ढोते
मगर बह रही है यह।
अविरल है, निर्मल है 
बहने दे, बहने दे इसे ।
मत कर इसे तू गंदा,
बस इसे अब तू — बहने दे ।
🌹🙏🙏🙏🙏🌹

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