गज़ल
हमने गुरबत में भी दम साँसो में छिपा रखा था ।
कतरे-कतरे पे स्याही का असर लगता था ।
यूँ तो देखी थी जमाने की रुसवाई हमने ।
खाली हाथों पे अंगार कोई जब रखता था ।
छलनी हो जाता था जिगर ,आँखों से अश्क बहता था ।
कोई जब वार लफ्जों से किया करता था ।
हमने गुरबत में भी दम साँसो में छिपा रखा था ।
कतरे-कतरे पे स्याही का असर लगता था ।
इस जमाने ने कभी कद्र न जानी मेरी ।
कूचे-कूचे पे सरे आम हर रोज लुटा करता था ।
हाथ पकड़ा नहीं ,संभाला भी किसी ने ही नहीं ।
अपने ही आप गिरा और उठा करता था ।
हमने गुरबत में भी दम साँसो में छिपा रखा था ।
कतरे-कतरे पर स्याही का असर लगता था ।
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