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आज खामोश है जमाना,
बोलती हैं केवल तस्वीरें ही|
यही आधुनिकता है,
पुरातन नहीं कहीं से भी |
रोज सुबह उठती हूँ,
सोचती हूँ हर बार |
क्या लौटकर आएगा वो जमाना,
फिर से एक बार |
कुछ अटखेलियाँ कुछ थोड़ा सा प्यार और दुलार |
बचपन में करी मस्ती की,
हर बात और तकरार |
क्या कभी हम भूल पाएँगे,
मन में छपी तस्वीरों की यह बात |
रोज लड़ते थे, झगड़ते थे,
देखने को उनको यूँ मचलते थे |
आज सामने वही है,
पर मिलता नहीं पलभर भी समय बिताने को उनके साथ |
छूटा वह समय लौटकर फिर कभी नहीं आएगा |
यूँ ही तस्वीरों से बहलाएँगे मन,
फसाना यूँ ही बनकर छूट जाएगा |
मौत की शैय्या पर लेटे होंगे जिस दिन हम, उस दिन जमाना फिर से हमें यूँ ही तस्वीरों में लटकाएगा |
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